गीत/नवगीत

गीत : भूरे भुवन में छाए हुए

भूरे भुवन में छाए हुए, मेघ मधु हुए;
जैसे वे धरित्री ही हुए, क्षितिज को लिए !

दिखती धरा कहाँ है, मात्र लख ही वे रहे;
नीले अकाश वे ही मिले, हृद वृहत किए !
छितरे हैं कभी झील बने, जैसे नभ हिए;
अपनी उदासी दूर किए, एक रस हुए !

नीरव हुए हैं धाए कभी, ऊर्ध्व गति ले;
बन धार कभी वे हैं बहे, वेग बहु लिए !
उनकी तो बात वे ही जानें, ‘मधु’ बस तकें;
उनके प्रकार औ अकार, उसी के लखें !

— गोपाल बघेल ‘मधु’