कविता

हर केन्द्र के लखा है वही, आस पास ही

हर केन्द्र के लखा है वही, आस पास ही;

वह प्राण में बसेरा किया, हर लिबास ही !

नज़्मों में लसा नाज़ रसा, रिश रिशा खिला;
दिल खुलाया ख़ुलासा किया, हिलडुला हँसा !
हुँकार भरा त्रास हरा, हरि बन चुरा;
मन खींच लिया क्वारा मेरा, खीर मधु खिला !

क्षरता रहा है क्षोभ लोभ, दुँदभी बजा;
बुद्धू बना भी खेला किया, प्रेम रस मिशा !
‘मधु’ नाचा किया कोरे हिया, हर उसास ही;
ओंकार ध्वनि लाए वही, हर मिज़ाज ही !

— गोपाल बघेल ‘मधु’