कुहरे की मार
कुहरे की फुहार से,
ठहर गया जन-जीवन।
शीत की मार से,
काँप रहा मन और तन।
माता जी लेटी हैं,
ओढ़कर रजाई।
काका ने तसले में,
लकड़ियाँ सुलगाई।
—
गलियाँ हैं सूनी,
सड़कें वीरान हैं।
टोपों से ढके हुए,
लोगों के कान हैं।
—
खाने में खिचड़ी,
मटर का पुलाव है।
जगह-जगह जल रहा,
आग का अलाव है।
—
राजनीतिक भिक्षु,
हुो रहे बेचैन हैं।
मत के जुगाड़ में,
चौकन्ने नैन हैं।
विलम्बित उड़ाने हैं,
ट्रेन सभी लेट हैं।
ठण्डक से दिनचर्या,
हुई मटियामेट है।
मँहगाई की आग में,
सेंकते रहो बदन।
कुहरे की फुहार से,
ठहर गया जन-जीवन…।
— डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’