घर मेरा है बादलों के पार ….
दिन-रात
सुबह -शाम
भोर -साँझ
कुछ नहीं बदलते
दोनों समय का नारंगीपना…..
उजली दोपहर
अँधेरी काली आधी रात हो
सब चलता रहता है
अनवरत सा ….
सब कुछ
वैसे ही रहता है
बदलता नहीं है !
किसी के ना होने
या
होने से ….
फिर क्यों
भटकता है तेरा मन
बंजारा सा
दरवाजा बंद या
है खुला
क्यों झांक जाता है तू !
क्यों ढूंढ़ता है मुझे
गली-गली ,
नुक्कड़-नुक्कड़ !
यहाँ
मेरा कोई पता है ना
ना ही कोई ठिकाना ….
घर मेरा है
बादलों के पार !
मिलना है तो फैलाओ पर
भरो उड़ान,
चले आओ ….