नारी भोग की वस्तु नहीं
सामाजिक ताने बाने की गाड़ी दो पहियों से बनी हुई है – एक नारी और दूसरा पुरुष। आदि काल से अब तक हो रहे लगातार परिवर्तन के दौर में नारियों की भूमिका सदैव ही अस्पष्ट रही है। मानव जाति के विकास के साथ नारी और पुरुष कंधे से कंधा मिलाते हुए एक – दूसरे के साथ – साथ रहे थे।
फिर एक ऐसी स्थिति आई जब समाज आपसी मेल जोल के बजाय ताकत के बल पर चलने लगा। मनुष्य की अतृप्त लिप्सा और असीमित महत्वाकांक्षा समाज में सिर चढ़कर बोलने लगी। पुरुषों की अपेक्षा नारियों की दशा समाज में दोयम दर्जे पर आ गई। अब नारी एक उपयोग की वस्तु बनकर रह गई। या तो वह चुल्हा चौके तक सीमित की गई या फिर राजनीतिक मोहरे के रूप में। इसको झेलते झेलते यह उनके जीवन का एक अभिन्न हिस्सा बन गया। राजाओं से लेकर कबीले के मुखिया तक की ताकत का मापदंड गुलाम बनाई गई नारियों की सुन्दरता और उनकी संख्या पर निर्भर होता गया।
समाज में हुए तमाम आंदोलन में नारियों ने पुनः मर्यादित भूमिका तलाशने की कोशिश की। कुछ हद तक उनको सफलता भी मिली। विज्ञान से अंतरिक्ष तक उनके पंख फड़फड़ाए। राजनीति का केन्द्र भी उनके परितः बना। सतही तौर पर ऐसा लगने भी लगा कि नारियों की भूमिका पुरुष के समकक्ष हो गई है, पर वास्तविकता इससे काफी दूर है।
आज के दौर में नारियों ने चाहे जो भी उँचाई छुई हों पर दुख के साथ एक बात का उल्लेख करना ठीक होगा कि पुरुष वर्ग अनवरत यह जताने में लगा रहता है कि नारी की उड़ान के पीछे उस नारी की योग्यता से अधिक किसी पुरुष का योगदान है और नारी भी इस मानसिक दुविधा से बाहर खुद को नहीं निकाल पाती। नारी पुरुष को खुद का साथी से ज्यादा सहारा मानने की भूल करती है और पुरुष इसी भूल पर मुहर लगाता चलता है। इसीलिए लाख तरक्की के बाद भी नारी दुर्भाग्यवश खुद और पुरुष की नजर में भी भोग की वस्तु से बाहर खुद को नहीं निकाल पा रही है। सामाजिक समरसता के प्रतिस्थापन हेतु पुरुष और नारी दोनो को दकियानूसी सोच का परित्याग करना होगा।
अवधेश कुमार ‘अवध’