कविता
नहीं रखनी मुझे अपनी
कविता किसी बाजार में
मैं नहीं लिखता इसलिए कि
यह छपेगी इश्तिहार में
मैं तो बस अपने मन के
भावों को थोड़ी सी हवा देता हूं
और ये जल उठती है
इसकी लो उतर आती है
कागज पर हर रोज
जब रात को आंख मूंद ने से पहले
सोच लेता हूं वो दो शब्द
तुम कह देती हो कि एक कविता है
ये कतरा है मेरे जिस्म का
दूर क्यों करूं खुद से
मेरी कविता बिकती नहीं ये
मेरे भाव है जीवन के
मेरे अंदर की आग है ये
जो जलती रहेगी सदा मेरी
अलमारी में रखी डायरियों में
बड़ा दुख होता है जब देखता हूं
बाजार में सिसकती कविताओं को
और इश्तिहार में बैठी ताकती कविताएं
देखता हूं धधक उठी है ज्वाला
जलता है मन मेरा
मैं मेरी कविता को नहीं बेचुंगा
ये मेरी है मैंने पाला है इसे
मैंने पोषित किया है इसका एक एक शब्द
मैं क्यों रखूँ बाजार में
ये कविता मेरी है जो रहेगी सदा साथ मेरे
जो देगी ठंडक मेरे अंतर्मन को
ये मेरी कविता है
परवीन माटी