“कुंडलिया”
आए जाए ऋतु सखी, ऋतु के अपने रंग
बिनु ऋतु नहि कदली फरे, लय बिनु नहीं मृदंग
लय बिनु नहीं मृदंग, थाप नहि मेंढर ठुमके
बिना नाक अरु कान, झुलाएँ कैसे झुमके
गौतम आज निशब्द, चली है रचना फिरकतु
नाहक नहि कुँहराय, गगरिया ठिठुरी आए।।
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी