लघुकथा

“बदला”

एक कथा…….
दादी दादी, भेड़िहार बहुत सारी भेड़ों को लेकर आये हैं। पूरब वाली बाग़ में घास चरा रहें हैं। देखों मैं किताब में रखने के लिए भेंड़ के बाल भी तोड़कर लाया हूँ। कहो तो जाकर बुला लाऊँ भेड़िहार काका को। आज रात अपने खेत में भेड़ों को हिरा दो। खेत में खाद पड़ जायेगी तो फसल बढियां पैदा होगी। बार- बार कहती हो न, खेतों को उपज कम हो गई है। रासायनिक खाद डालते, डालते खेत उतर गए हैं। गोबर की खाद अब होती नहीं, मौका अच्छा है। ज्वार, गन्ना, मक्का सबके सब लहलहा जायेंगे। अगली बार जब भेड़ों का झुण्ड आया था तो कोई कहने नहीं गया और वे अपनी भेड़ों को लेकर अपने देश-गाँव चले गए थे। तुम कहती थी न कि भेंड़- बकरी की खाद से खेत की पैदावार बढ़ जाती है। जल्दी बताओ नहीं तो कोई दूसरा आदमी अपने खेत में भेड़ो को बिठा देगा।
हाँ हाँ ठीक है, सोचती हूँ। जबसे आया है भेंड़-बकरी पकड़ के बैठ गया है। नालायक, जा पहले कुछ खा-पी ले। दादी की घुड़की सुन हरेश घर में घुस गया और भेंड़-बकरी भूल गया। दूसरे दिन फिर स्कूल जाते हुए उसको भेड़ो का झुण्ड किसी के खेत में दिखा तो शाम को आकर उसने फिर दादी का जी खाने लगा। खींझकर दादी ने कह दिया, ठीक है कल भेड़िहार को बुला लाना। हरेश की विजय हो गई मानों किसी राजा ने दुश्मन के मजबूत किले को फतह कर लिया हो और विरोधी सैनिको की फ़ौज उसके ताबे हो गई है। किसी तरह रात बीती, सुबह हुई, दौड़ते-दौड़ते हरेश भेड़ो के पास गया और अपने खेतों के लिए रात्रि निमन्त्रण देकर स्कूल चला गया।
दोपहर को भेड़िहार, पुछते-पुछते दादी के पास आये और सिधा-पिसान लेकर, गाँव के पश्चिम वाले खेत में रात गुजारने का वादा कर गए। हरेश स्कूल से वापस लौट के आया और खा-पीकर दोस्तों के साथ खेत में भेड़ो की रखवारी करने चला गया। देर रात तक सबके सब बच्चे भेड़ों को उठाते बैठाते रहे। नींद और बचपन का क्या भरोषा, जब मन हुआ सो लिए, जब जगे तो खेल लिए। भेड़िहार तो बच्चों के भरोषे पहले ही सो गए थे, नींद से बोझिल बच्चे भी उनके आस-पास जमीन पर पसर गए।
सुबह हुई तो भेड़िहार और भेंड़ खेतों से लापता दिखे। बच्चों को कोमल भैया हिलाकर जगाए और अपने उड़द वाले खेत को दिखाए, जिसे भेंड़ों ने मौका देखकर सफाचट कर दिया था। बच्चे तो हक्के-बक्के रह गए और गुनाह हो जाने के डर से रोने लगे। कोमल भैया को मांजरा समझते देर न लगी। वे इधर-उधर दूर तक नजर दौड़ाए, पर कही भी भेड़ों का एक छौना भी नजर न आया। माथा पकड़ कर बैठ गए। बड़ी मेहनत से उड़द की बुआई किये थे, कई बार पानी चलवाए जिसमे बहुत पैसा भी खर्च हो गया था। अब तो फली भी लग गई थी अगर भेड़ों की नजर न लगी होती तो इस बार सारे कर्ज उतर जाते।
कोमल भैया दुखी मन से दादी के पास गए और अपना दुखड़ा सुनाकर, धमकी भी दे लगे कि सारे नुकशान की भरपाई करनी पड़ेगी। दादी पुराने ज़माने की ठहरी, सूद समेत कोमल भैया को जस का तस सुना दिया।
ये कोमल बहुत शेखी मत बघारो, पांच सेर आटा, किलो भर रहरी के दाल, पसर भर नमक, ढाका भर गोइठा अउर अचार- मरचा के साथ चिंयाँ जइसन दस रूपया दिया था उन कलमुंहे भेंडियारों को। भेड़ बकरी हगाने-मुताने के लिए समझे। सोना जइसन नाती रात भर खेत में सती हो गया। उ दहिजरे आदमी होकर सो गए तो जानवरों का क्या भरोषा। हरी हरी पत्तियां देख, घुस गई सगरी भेंड़ तुम्हारे खेत में। हम ई कहाँ कहे रहे कि दूसरे के खेत में गलचौरी कराके हमरे खेत में खाद डालना था। बहुत बहादुर बनते हो तो रखा लेते अपना खेत। जाओ, खोजों उनको और हर्जाना ले लो करमजलों से। हमरे दरवाजे पर तमाशा न करो।
कोमल भैया को दुःख तो बहुत हुआ पर बड़ों की कही सुनी पर मन मसोस कर चुप रहना ही मुनासिब समझकर घर आ गए। उड़द की दाल भूल गए। अगले वर्ष दादी ने अपने उसी खेत में उड़द की बुआई करवाईं और अच्छे खासे पैदावार की मालकिन बन बैठी। फसल कटी तो उनको कोमल की याद आई और 50 किलो उड़द उनके घर भिजवा कर अपने मन का भार हल्का कर लिया। कोमल भैया दादी के पास दौड़ते हुए आये और दादी से इतना ही कहा कि काकी मुझे परया क्यों समझा। उड़द भिजवा कर आप ने मुझे गैर कर दिया। आँखे डबडबा गई दोनों की। दादी ने कोमल भैया को गले लगा लिया और कहा कि दाल तो मैंने भी नहीं खाई एक साल तक कोमल। खेत तुम्हारा था पर बच्चे हमारे थे। एक साल का दिन रात कैसे बिता तुम क्या जानों। फसल अच्छी हुई, भगवन ने मेरी सुन ली, देख दोनों घरों में उड़द ही उड़द झलक रहा है।शुक्र है कि न तुम्हारा मन गलत था न मेरा, और इसी का नतीजा है कि वैमनस्व का बीज अंकुरित न हुआ अन्यथा आज कुछ और ही दृश्य दिखता उन खेतों में। खुश रहो बचवा, ऐसी ही आपसी समझ की फसल उगती रहे गाँव घर में……..यही आशीष देती हूँ।
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी

*महातम मिश्र

शीर्षक- महातम मिश्रा के मन की आवाज जन्म तारीख- नौ दिसंबर उन्नीस सौ अट्ठावन जन्म भूमी- ग्राम- भरसी, गोरखपुर, उ.प्र. हाल- अहमदाबाद में भारत सरकार में सेवारत हूँ