कविता : शक
हक़ दिया तुमने पूरा मुझे , तभी शक होता यार
मुँह ना मोड़ मुझसे तू यू , देख तू मेरा वो प्यार
किसी छोटी बातों से न , हो यूँ हमेशा ही उदास
दुरियाँ हो तो क्या हुआ , हु तो दिल के ही पास
जो भी मिला तुमसे मुझे , रखा उसे ख़ूब संभाल
मिलेंगे जब रूबरू हम , मसले कर लेंगे सब हल
सबक़ ले हम उस चाँद से , जो है बोहोत ख़ास
दूर बहोत होकर भी है , नज़दीक जैसा आभास
मजबूरियाँ होसकती , कुछ तेरी कुछ मेरी सनम
वरना सोचो की , कैसे एक दूसरे से जुदा है हम
दूर रहेने से कूच पल का , ‘शक’ तो होता राज
दिल में प्यास भी बड़ती , और याद आती रोज़
प्रिय प्रेमी के फ़ैसले पर , भला ‘शक’ कैसे करुँ
दे रहा गर सज़ा कुछ तो , गुनाह रहा होगा मेरा
✍?..राज मालपाणी
शोरापुर – कर्नाटक