कविता : सच की माया
आज मैं हूँ उलझन में
अपनों से अनबन में
जो कभी सोचा नहीं वो
घट रहा है जीवन में
झूठ और फरेब ही क्या
आज बहुमूल्य है
मेहनत के पानी से अब
मुरझाये क्यों फूल हैं
बचपन में सिखाया था
कि चोरी करना पाप है
पूछते हैं अब वही
कमाते क्या आप हैं
कहा कि वही कमाते हैं
जो देती सरकार हैं
तब हँसकर पूछते हैं
बस यही दरकार है
इसी दिन के लिये क्या
तुमको पढ़ाया था
सच्चाई की पड़ी ये
तुमपे कैसी माया है