कैद मुबारक
तीखे नैन, अदा नखराले,
उड़ते गगन में हम मतवाले।
पंख खोल हम इतराते थे,
रहते सदा साथ दिलवाले।।
मैं राजा वो रानी मेरी,
बचपन से ही कहानी हेरी।
हम ना जाने विरह व्यथायें,
साथ – साथ करते थे फेरी।।
मैं पिंजरे में हुआ अचानक,
काल दृष्टि की घटा भयानक।
हाय विधाता क्या कर डाला,
विरह दशा दी क्यों अधिनायक।।
ये पगली मेरी बात न माने,
बैठी है पिंजरे के मुहाने।
मैं बोला आजाद रहो तुम,
कहती विरह दर्द तू तो जाने।।
ये जानती है मै रह न सकूंगा,
बिन इसके मैं जी न सकूंगा।
यही सोच कर त्याग कर रही,
इसे कैद मुबारक कह न सकूंगा।।
?????
।।प्रदीप कुमार तिवारी।।
करौंदी कला, सुलतानपुर
7537807761