महात्मा फुले की कन्या पाठशाला में महर्षि दयानन्द जी का वेदोपदेश
ओ३म्
महात्मा फुले ने पुणे नगर में सन् 1873 में ‘‘सत्यशोधक समाज” की स्थापना की थी। उन्होंने इससे पूर्व 1 जनवरी सन् 1848 को पुणे में शूद्रातिशूद्रों के लिए एक कन्या पाठशाला की स्थापना भी की थी। यह संयोग की बात है कि महर्षि दयानन्द ने सन् 1848 में ही संन्यास की दीक्षा लेकर अपना जीवन पूर्णतः सामाजिक कार्यों के लिए समर्पित किया था। स्वामी दयानन्द जी ने 16 जुलाई सन् 1875 को महात्मा फुले द्वारा संस्थापित कन्या पाठशाला में महात्मा फुले वा उनकी कन्या पाठशाला के अन्य अधिकारियों के लिखित निमंत्रण पर पाठशाला की कन्याओं वहां उपस्थित लोगों को सम्बोधित किया था और उन्हें शिक्षा व ज्ञान के महत्व सहित वेद के शिक्षा विषयक विधानों से परिचित कराया था। महात्मा फुले और ऋषि दयानन्द के परस्पर संबंधों पर आर्यजगत के यशस्वी विद्वान कीर्तिशेष डा. कुशलदेव शास्त्री जी ने अपनी प्रसिद्ध शोधपूर्ण पुस्तक ‘‘महर्षि दयानन्द: कल और कृतित्व” में विस्तार से प्रकाश डाला है और अपनी सभी मान्यताओं के पक्ष में तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं एवं पुस्तकों आदि से प्रमाण रूप में उद्धरण देकर उनकी पुष्टि की है। यह भी बता दें कि ऋषि दयानन्द ने सन् 1875 मे पुणे में लगभग ढ़ाई महीने प्रवास कर 50 से अधिक व्याख्यान दिये थे। इस समय उनके मात्र पन्द्रह प्रवचन उपलब्ध होते हैं जिन्हें ‘उपदेश मंजरी’ नाम से प्रकाश्ति किया जाता है। अनुमान है कि महात्मा फुले अपनी मित्र व शिष्य मण्डली सहित ऋषि दयानन्द के अधिंकाश उपदेशों में सम्मिलित हुए थे। इतना ही नहीं महात्मा फुले पुणे नगर मे महर्षि दयानन्द के सम्मान में निकाली गई शोभायात्रा में भी अपनी मित्र मण्डली के साथ सम्मिलित हुए थे। दोनों महापुरुषों में अनेक अवसरों पर अनेक विषयों पर वार्तालाप भी हुआ था, इसका भी सहज अनुमान होता है।
महात्मा फुले द्वारा स्थापित पुणे की कन्या पाठशाला में महर्षि दयानन्द के वेदोपदेश से सम्बन्धित डा. कुशल देव शास्त्री ने लिखा है, ‘‘सन् 1875 में लगभग ढ़ाई महिने आर्यसमाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द पुणे में रहे। इस कालावधि में उनके पुणे शहर और छावनी में पचास से भी अधिक व्याख्यान हुए। अतिवृष्टि के दिनों को अपवाद रूप में छोड़कर महात्मा फुले स्वयं इन व्याख्यानों में अपने सत्यशोधक समाज के सदस्यों के साथ उपस्थित रहे थे। (इसका वर्णन महात्मा जोतीराव फुले के श्री पंढरीनाथ सीताराम पाटिल द्वारा लिखित मराठी जीवन चरित्र की सन् 1927 में प्रकाशित प्रथम आवृत्ति व सन् 1989 में प्रकाशित द्वितीय आवृत्ति के पृष्ठ 65 पर उपलब्ध है।)। महर्षि दयानन्द की प्रगतिशील विचारधारा से प्रभावित होकर महात्मा फुले ने शुक्रवार 16 जुलाई 1875 को सायं सात बजे अपनी मोािमनपुरा में स्थित शूद्रातिशूद्रों की पाठशाला में महर्षि का वेद–प्रवचन आयोजित किया था। (ईसाईयों का मासिक पत्र ‘सत्यदीपिका’, सम्पादक–बाबा पद्मन जी, अगस्त 1875 पृष्ठ 95-96)। इस वेद प्रवचन तक महर्षि को पुणे पधारे हुए लगभग 26 दिन बीत चुके थे और वे बुधवार पेठ में स्थित भिड़ेवाड़े में ‘ईश्वर’, ‘धर्माधर्म’ और ‘वेद’ विषय पर पांच प्रवचन दे चुके थे। एकेश्वरवाद, शूद्रातिशूद्रों और स्त्रियों की शिक्षा इत्यादि विषयों में महर्षि से वैचारिक ऐक्य होने के कारण और रूढ़िवादियों के साथ संगठित शक्ति के रूप में मुकाबला करने के लिए महात्मा फुले अपने अनुयायियों के साथ महर्षि के पुणे–प्रवचनों और शोभायात्रा में सदल–बल शामिल हुए थे।” (सन्दर्भः महर्षि दयानन्द: काल और कृतित्व पृष्ठ 131-132)
महात्मा ज्योतिबा फुले की कन्या पाठशाला में महर्षि दयानन्द द्वारा व्याख्यान देने का विवरण उपर्युक्त पुस्तक के पृष्ठ 134-135 पर भी हुआ है। महात्मा फुले व महर्षि दयानन्द के संबंध में अन्य जानकारी के लिए पाठकों को डा. कुशलदेव शास्त्री जी की पुस्तक को पढ़ना चाहिये। यह पुस्तक आर्य प्रकाशक ‘श्री प्रभाकरदेव आर्य, मैसर्स श्रीघूड़मल प्रह्लादकुमार आर्य घर्मार्थ न्यास, ब्यानिया पाडा, हिण्डोनसिंटी, राजस्थान-322230’ से प्राप्त की जा सकती है।
यह भी जानने योग्य है कि महर्षि दयानन्द जी ने सन् 1867 में कर्णवास में हंसादेवी ठाकुर को ‘गायत्री मन्त्र’ का अधिकार प्रदान किया था। मुम्बई के फोटोग्राफर हरिश्चन्द्र चिन्तामणि के सुपुत्र का यज्ञोपवीत संस्कार सन् 1876 में महर्षि दयानन्द की उपस्थिति में सम्पन्न हुआ था। महाराष्ट्रीय पण्डिता रमाबाई को महर्षि ने सन् 1880 में न्याय दर्शन और वैशेषिक दर्शन के सूत्र इस आशा के साथ पढ़ाये थे कि यह देवी शास्त्रज्ञ बनकर भारतीय महिला वर्ग की उन्नति में अपना गोगदान कर सकेगी। उन्होंनंे पण्डिता रमा को परोपकार के लिए अपना जीवन उत्सर्ग करने की प्रबल प्रेरणा भी दी थी। एक बार एक नाई महर्षि दयानन्द के भोजन के समय रोटियां ले आया था। महर्षि दयानन्द ने उस भोजन को सप्रेम स्वीकार किया। कुछ पण्डितों के विरोध करने पर उन्होंने कहा था कि यह रोटी नाई की नहीं अपितु गेंहू के आटे से बनी है। उन्होंने कहा था कि रोटी लाने वाली नाई ईमानदार मनुष्य है और पुरुषार्थ से धन कमाता है। अतः इसकी बनाई रोटी खाने मे कोई दोष नहीं है। महर्षि दयानन्द मनसा, वाचा व कर्मणा एक थे। वह वेदों की मान्यताओं व सिद्धान्तों का शत-प्रतिशत पालन करते थे। इसी के साथ इस संक्षिप्त लेख को विराम देते हैं।
–मनमोहन कुमार आर्य