लघुकथा

अंधकार

आज दैनिक जागरण अख़बार के कार्यालय में ..”बालिका दिवस” .. के अवसर पर संगनी क्लब की सदस्याएं अपने अपने विचार रख रही थीं .. विषय था “बेटियाँ बचाओ – बेटियाँ पढ़ाओ”
“मेरी परवरिश अच्छी हुई …. मैं पढ़ी लिखी हूँ … शिक्षिका हूँ …. मेरे पिता मेरे संग रहने आये मगर रह ना सकें | हमारा संस्कार , हमारी परवरिश ऐसी है कि हम ससुर से वैसा व्यवहार नहीं कर सकते हैं , जैसा हमारे घर आये हमारे पिता के साथ होता है , हम घर छोड़ भी नहीं सकते ” बताते बताते रो पड़ी महिला …
 
“बताते हुए आपके आँखों में आँसू है यानि अभी भी आप कमजोर हैं ….. आँखों में नमी लेकर अपनी लड़ाई लड़ी नहीं जा सकती है ….. घर में एक से आप अपनी लड़ाई जीत नहीं सकती …. तो … ज्यों ही चौखट के बाहर आइयेगा , सैकड़ों से कम से कम लड़ना होगा, कैसे जीतने की उम्मीद कर सकती हैं ….. दीदिया का कहना है :: पुरुष,स्त्री को चाहें जितना भी प्यार कर ले किन्तु,बराबरी का दर्ज़ा…..नको, सोचना भी मत।”
” सोचना क्यूँ है … जहाँ ना हो वहाँ दे भी नहीं”
“ना देने पर घर,हल्दीघाटी बन जाता है विभा।”
“मुझसे बेहतर कोई जान नहीं सकता है दीदिया , लेकिन दवा भी यही है … समय लगता है लेकिन स्थिति सुधरती है … जंग जारी रखना है और जीतना है”

*विभा रानी श्रीवास्तव

"शिव का शिवत्व विष को धारण करने में है" शिव हूँ या नहीं हूँ लेकिन माँ हूँ