लघुकथा

लघुकथा : दुल्हन ही दहेज़

आज हर्षद भाई बहुत खुश थे । अपने बचपन के मित्र सोमा भाई की बेटी रिंकी को उन्होंने अपने बेटे के लिए पसंद कर लिया था । सोमाभाई आज उनके घर पर उनके बेटे करण के रोके की रस्म करने आ रहे थे ।  तय समय पर कुछ नजदीकी रिश्तेदारों और पड़ोसियों की उपस्थिति में करण के रोके की रस्म पुरी की गयी । आगे के वैवाहिक कार्यक्रम की रुपरेखा तय करने के लिए हर्षद भाई और सोमाभाई कुछ रिश्तेदारों के साथ बैठकर चर्चा कर रहे थे । सब कुछ तय हो जाने के बाद सोमाभाई ने खड़े होकर हर्षद भाई के सामने अपने दोनों हाथ जोड़ते हुए भावुक व विनम्र स्वर में कहा ” हर्षद भाई ! तुम्हारी बड़ी मेहरबानी है जो बिना दहेज़ के मेरी बेटी को अपनी बहु बनाने का फैसला किया । मेरी हैसियत तो नहीं है कि मैं कुछ दे सकूँ लेकिन फिर भी चाहता हूँ कि कुछ ले लो । बताओ ! मैं क्या दूँ जो तुम्हें अच्छी भी लगे और काम भी आये ? ”
हर्षद भाई ने प्रेम से सोमाभाई का दोनों हाथ पकड़ते हुए कहा ” सोमाभाई ! तुम्हारा ही घर है । घुम कर देख लो ! भगवान का दिया सब कुछ है मेरे पास शिवाय एक बेटी के । मैं तो चाहुंगा कि तुम मुझे बहु के रूप में एक बेटी ही दे दो । बस !  और कुछ नहीं ! हाँ मेरी बेटी को आशीर्वाद देना नहीं भुलना ! ”
हर्षद भाई की बातें सुनने के लिए सोमा भाई की आँखों में आँसू भी पलकों तक आ गए थे ।

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।