गुलशन-ए-अशआर (कुछ शेर)
तल्खिया-ए-हालात भी सिखाती हैं कुछ हमें
वर्ना बे-अंदाज़ ही जीते थे रौ में ज़माने की
आपकी सोहबत ने सुखन से मिला दिया
वर्ना अदब से यूं ही किये बैठे थे किनारा
कश्तियां भी थीं, किनारे भी थे,
तूफानों में राह दिखाए वो सितारे न थे
दर्द-ए-दिल को तेरे शेरों ने संभाला
काश तूने कुछ दवा ही दे दी होती
खुदा की इनायत के बगैर यह मुमकिन नहीं है,
एक शेर के लिए जलना होता है कई रातों को
ग़ैब के बाग़ की खुशबू का निशां मिल जाये
हमें भी आपकी महकती ग़ज़ल का माहताब मिले
जब दुश्मन भी मेरे जीने की दुआ मांगने लगे
समझिये मंज़िले-मक्सूद करीब है
किसी को न था ग़ुमान, समय ऐसा भी आएगा
हम देखते ही रह गए, तुम्हारा निशां न मिला
जुस्तजू जिसकी है आरजू में ही मिलती है,
हकीकत में मिलने के लिए, किस्मत बुलंद चाहिए
नए हैं लोग नई-नई सी है फ़िज़ाएं भी
पुराने फसानों की बात कुछ और ही है
मेरा नाखुदा रहे सलामत ऐसा कुछ करम कीजे
या फिर भंवर में तू ही नाखुदा बनके आना.
(सुखन= साहित्य
अदब= साहित्य
माहताब= चंद्रमा
ग़ैब= अदृश्य लोक
नाखुदा= मल्लाह, कर्णधार)