सोलह कला संग में मोहन
हाथ गुलाबी फूल
हिया में बिधते उसके शूल
गजब दस्तूर वसूल |
लोहे को पारस ने छूकर
उसको किया निर्मूल
जहाँ का अजब -गजब दस्तूर |
माया स्वप्न में आकर कहती
राज तेरे वसूल
दुनियाँ माया मोहित रूप |
कौन अमर दुनियाँ में आया
राम कृष्ण बदनाम
पड़ा है छलिया इनका नाम |
राजा बाली को छिप हरि मारे
कैसे राम लाचार
मिला था उसको यूँ वरदान |
अग्नि परीक्षा पत्नी लेते
देते देश निकाल
कहाँ का भगवन ये सम्मान |
चली बिलखती जंगल जंगल
सुमिरि हिया हरि नाम
मिला है पावन ऋषि का धाम
कहो हरि कैसा तेरा न्याय |
सोलह कला संग में मोहन
गोपी रास रचाते थे ,
माँ नें बरबस झूठ बोलते
माखन नहीं चुराता हूँ |
कालयवन को देख भागते
वे रणछोड़ कहाते हैं
मेरे भोले भाले मोहन
कैसे रास रचाते हैं?
— राजकिशोर मिश्र ‘राज’