जहां से उठाने तुम चली आओ
घिरे है तन्हाई में हम, बचाने तुम चली आओ
सोती यादों को जगाने तुम चली आओ
उदासी हर घड़ी रहती, तड़पती रूह मेरी है
वो सरगम पायल की सुनाने तुम चली आओ
समन्दर है यहां कितने, मगर नाकाम सारे हैं
तबस्सुम की बूंद वो, पिलाने तुम चली आओ
फिजा मदहोश करती है, नजारे जख्मीं कर देते
छुपा है ‘राज’ ईशा में बुलाने तुम चली आओ
सही दूरी नही जाती, बहते अश्क़ रातो दिन
वो जुल्फो की चादर में, सुलाने तुम चली आओ
बहुत हो गये हिज्र, अब सहना मुहाल है
जिन्दगी मुझे जहां से उठाने तुम चली आओ
— राज कुमार तिवारी (राज) बाराबंकी उत्तर प्रदेश