मेरा बसंत
उस दिन सुबह-सुबह सोशल मीडिया पर कुछ बधाई संदेश देखे थे, तभी पता चला था कि आज बसंत पंचमी है…बचपन में मैं अपने दादा जी के मुँह से सुनता, “आज बसंत पंचमी है..बसंत पंचमी को ॠतुराज कहा जाता है” उनके इस वाक्य के साथ ही मेरा तादात्म्य बासंतिक परिवेश से बनने लगता था…हवाओं में एक अजीब सी खुशबू…गेहूँ के खेतों में हरियाली..सरसों के पीले फूल..आम के पेड़ों पर बौर का दिखाई देना..बागों में पतझड़ की शुरुआत होना.और पतझड़ की सूखी पत्तियों पर दौड़ लगाना..ये सभी दृश्य बसंत का नाम सुनते ही स्मृति पटल पर चलचित्र की भाँति चलने लगता है…हाँ इतना जरूर था कि तब मैं गुलाब के फूलों को देखने के लिए तरसता था और अगर कहीं यह फूल मिल जाता तो उसे सहेजकर रख लेता…आज… बसंत…इस एक वाक्य के साथ वे बचपन की पुरानी दृश्यावलियाँ तादात्म्य करती हुई दिखाई देने लगती हैं।
लेकिन आज जब यह बसंत आया है तो चहुँ ओर चुनाव का मौसम छाया है या फिर बजट की चर्चा है या कहीं-कहीं नोटबंदी के बाद के असर की हल्की-फुल्की चर्चा सुनाई पड़ जाती है। आज जो बच्चे हैं वह आगे चलकर “बसंत” शब्द सुनकर अपनी ज्ञानलक्षणा शक्ति से नोटबंदी, चुनाव, बजट आदि जैसी बातों से ही अपना तादात्म्य स्थापित करेंगे और बसंत के मौसम की विशेषताओं में यही सब गिनाएंगे। वैसे भी वह वाला पुराना बसंत अब आता ही कहाँ है..और आता भी है तो पता भी नहीं चलता। इधर आज का बसंत जैसे एक नये टाइप का एहसास लेकर आया है।
वैसे भी, लेखक टाइप के लोगों के लिए भी बसंत, अब वैसी टीस लेकर नहीं आता कि कोई लेखक लिख मारे, “आम की यह जो डाली दिखी / कह रही है अब यहाँ नहीं आते पिक या शिखी।” अब लेखक लोग बगैर टीस के आराम से बसंत पर कविता या व्यंग्य लिख मारते हैं, क्योंकि आज के लेखकों को बसंत को देखने के लिए डाल-डाल, बाग-बगीचे और खेत-खलिहान नहीं फिरना होता है। इसके लिए ये एक्सीलेटर दबाए फोर लेन या सिक्स लेन से सीधे शहर में प्रवेश कर जाते हैं और वहीं घूम घूम कर बसंत को निहारते-निहारते मदमस्त भये रहते हैं..और यह बसंत भी यहीं बैठा आराम से जुगाली करता उन्हें मिल जाता है। वैसे भी, अब शहरों में बसंत की रौनक खूब छायी रहती है, बल्कि गाँव-गिराँव में जो बचा-खुचा पुराने टाइप का बसंत आया भी होगा वह भी वहाँ आकर पछता ही रहा होगा तथा मन ही मन इन शहरों की ओर रुख करने की सोचता होगा। आज वह पुराना वाला बसंत कहीं किसी लकड़ाते आम की डाली की सूखी पत्तियों के बीच अपना स्थान खोज उदासी में यही सोच रहा होगा कि “वह लेखक कहाँ होगा…जो मुझे देख कर कहता…देखो भाई, वह बसंत आ गया है।” वाकई, बसंत की पहचान लेखकों को ही होती है, बाकी तो निरे बेवकूफ होते हैं जो पढ़कर ही जान पाते हैं कि भई, बसंत आया है!
हाँ, संयोग से मैं भी गाँव छोड़ ऐसे ही अपने बसंत की तलाश में व्यस्त रहता हूँ…इधर, इस बसंत पर लिखते हुए कई बार डिस्टर्ब हुआ, आखिर इस मौसम में चुनाव की तैयारी जो करानी है! मेरे लिये चुनाव का यह पीरियड शान्ति और सुचारु रूप से निपट जाये तभी बसंत है..! इस चुनावी बासंतिक बयार में उस दिन, एक नेता को आचारसंहिता पर ध्यान दिलाए जाने की बात पर, उनने कहा, “भई, करा लो आचारसंहिता का पालन, अभी तो आप लोगों का ही समय है..बाद में तो हमें ही देखना है..” खैर.. कहने का मतलब सब का अपने-अपने हिसाब का ही बसंत होता है… कोई जरूरी नहीं कि यह फरवरी-मार्च में ही आए…अब तो टुकड़ों में यह बसंत कभी भी आ जाता है.. मतलब जो, जहाँ जिसको मजा आ जाये उसके लिए उसी समय बसंत…नहीं तो सब धान बाईस पसेरी तो हईयै है! जैसे, चुनाव सफलतापूर्वक और शान्तिपूर्ण ढंग से निपट जाए तो मेरा बसंत और नेताजी चुनाव जीत जाएं तथा अपनी आचारसंहिता का पालन करवाने लगें तो उनका बसंत..लेखकों को लिखने का मसाला मिल जाए तो उनका बसंत….मतलब, ऐसे ही लोगों का आदि-आदि टाइप का बसंत..!
इधर फोर या सिक्स लेन से आते-जाते उस पुराने उदास बसंत को जब इधर-उधर पसरे हुए देख लेता हूँ, तो सोचता हूँ, अगर समय मिलता तो इस बसंत को जरूर समझाता, “देख भाई बसंत! चल तू भी पूरी तरह नगरवासी हो जा..यहाँ तुझे देखने वाला कौन है..यहाँ सन्नाटे में जान देने पर क्यों तुले हो..! यह जो हर-जोतवा किसान है न वह तुझे नहीं समझ पाएगा…वे लेखक, जो तुझे देख कभी आहें भरते थे, वे सब नागरिक हो गए हैं…यहाँ तुझे देखने वाला अब कोई नहीं है…इन लेखकों की बसंत-बयार वहीं बह रही है..यहाँ गाँव-गिराँव, खेत-खलिहान में तुझे देख अब उन बेचारों को लिखने का कोई मसाला नहीं मिलता..यहाँ तो सब कुछ लकड़ाया हुआ सा है…भला लकड़ाये हुए पर कभी बसंत आता है…! इसीलिए यहाँ रहकर वे अपना बसंत नहीं मना पाते हैं… जबकि बसंत तो लेखकों का ही होता है, मतलब लिखने को जहाँ मसाला मिले वहीं लेखकों का बसंत…फिर तुझे भी यहाँ बैठे हुए क्या मिलेगा..कोई तुझे जान भी नहीं पायेगा..!” खैर..
कहते हैं बसंत में बसंतोत्सव मनाया जाता है और मदमाते लोग मदनोत्सव मनाते हैं…लोग बसंती हवाओं में मदमस्त हो जाया करते होंगे…पूरा का पूरा माहौल ही उत्सव टाइप का होता रहा होगा। वहीं तब कुछ गंभीर प्रकृति के लोग बासंतिक रंग से बचे-बचे भीड़ से अलग-थलग मनमसोसकर, धीर-गंभीर मुद्रा में मार्गदर्शक मंडल के सदस्य के मानिंद इस उत्सव को निहारते भी रहे होंगे..और…अपने बच्चे को बताते होंगे, “देखो, यह बसंत आया..!” वैसे, यह परम्परा आज जीवित ही नहीं बल्कि और भी आदर पा रही है…बच्चे लोग, बड़े-बूढ़ों को अब मार्गदर्शक मंडल में उठाकर धरे भी दे रहे हैं… वैसे भी बासंतिक बयार में बूढ़ों का क्या काम..! इन बडे़-बूढ़ों की उपस्थिति में बसंतोत्सव मनाने में वैसे भी संकोच होता है, मनमानी नहीं चल पाती..बाकी मार्ग का दर्शन तो किसी को करना ही नहीं होता….
हाँ तो मित्रों..अब बसंत में, पेड़ की डाली से गिरी पड़ी सूखी पत्तियों को रौंदने का मौका तो नहीं मिल पाता लेकिन जब-तब गले में पड़ती लाल गुलाब की मालाओं को देख-देखकर मन ही मन, बसंत की बाकी रह गई पुरानी कसक पूरी हो जाती है..तो…मेरा कुछ ऐसई बसंत बीतता है…