क्यों है
है शौक हमें भी खेलने का मगर
जिन्दगी से गायब शरारतें क्यों है।
है लबों पर चाहतें कई मेरे मगर
तेरे लबों पे भरी शिकायतें क्यों है।
कहनी थी कई बातें तुझे ऐ हमनशीं
मगर तेरी आखों में मेरे लिये ये हिकारतें क्यों है।
है इल्म मुझे तेरी चुप्पी का मगर
मेरे लिये तेरी ये नजरें इनायते क्यों है।
गुजर जायेगी ये जिन्दगी युँ ही रूसवाईयों में
मगर तेरे दिल मे दर्द भरी ये रवायतें क्यों है ।
कहने को कह दूं सारी बातें जमाने से
मगर मेरे लब्जों मे पसरी तेरी खामोशियां क्यों है।
है अभी भी इन्कार तुझे मेरी दिल्लगी का
मगर मेरे इश्क मे बरकरार ये गर्माहटें क्यों है।
—अल्पना हर्ष