गज़ल
लगता नहीं है आसां, मिलना हदे मंज़िल का।
किश्ती पे बैठकर भी, पाना हदे-मंज़िल का॥
चाहा था हमने मिलना, दीदार बस दिलबर का।
वो ही न मिल सका इक, ग़मे यार मुख़्तसर था॥
चाहत थी फूल मिलते, पाया मगर न उनको।
कांटे-ही-कांटे ही दिखे, गई आंख जिधर को॥
थी आरज़ू कि देखूं, जलवां धुले गगन का।
खुली आंख तो अंधेरा, सब ओर पुरनज़र था॥
थी प्यास दिल में पाऊं, हर शै में तुझको मालिक।
वो भी तो न हो सका है, मैं कैसे बताऊं हे ख़ालिक॥