भूल न जाना
शरद ऋतु की दस्तक आ चुकी थी,
गुनगुनी धूप राहत देकर बता रही थी,
कि बिन बुलाए मेहमान की तरह,
कई दिनों से अचानक जो वर्षा रानी दर्शन दे रही थी,
आज वही वर्षा रानी
बादलों की पालकी में सवार होकर
ओस की बूंदों को स्विमिंग पूल की ग्रिल पर छोड़कर
उसी तरह विदा हो गई,
जिस तरह पाल-पोसकर हसरतों से पाली हुई आत्मजा,
डोली में बैठकर भीगी पलकों से
पीछे छूटती हुई जानी-पहचानी डगर को निहारती हुई
खुशी और ग़म का अहसास लिए विदा होती है.
पुनः गुनगुनी धूप ने बगिया में अपनी झलक दिखाई
हमने भी रज़ाई छोड़ बगिया में चहलकदमी की राह अपनाई,
बगिया में दिख रहे थे पक्षियों द्वारा कुछ कुतरे हुए फल
जो बता रहे थे हमारे जीवन की सत्यता को
हम भी कुतरे जा रहे हैं इसी तरह
दिन-रात रूपी पक्षी की तरह.
सफेद फूलों के पौधे पर इतरा रहे थे कुछ फूले हुए फूल
जो बता रहे थे कि थोड़ी-सी सफलता से
हम ऐसे ही फूल जाते हैं
भूल जाते हैं कि पंखुड़ी-पंखुड़ी होकर झरे हुए फूल
जिस तरह नहीं रहे
हमारा भी एक दिन वही हाल होना है
उस दिन सारी सफलता यों ही धरी-की-धरी रह जाएगी.
भीगे पंखों वाले पखेरु अपने पंख सुखाकर
चुग्गा चुगने को आ गए थे
खुशी में चहचहा रहे थे
परमात्मा की स्तुति के गीत गा रहे थे
हमें भी समझा रहे थे- ”करो पल-पल शुकराने प्रभु के”.
यही तो है पूरी ज़िंदगी की जमापूंजी का अनमोल खज़ाना
इस ख़ज़ाने को हर पल भरते रहना,
भूल न जाना,
भूल न जाना,
भूल न जाना.