हम तो चलते -फिरते कवि हैं
हम तो चलते -फिरते कवि हैं
जो आया मन लिख देते है
आप सभी का आशिष पा कर
कुछ न कुछ सिख लेते हैं
हम तो चलते -फिरते कवि हैं
जो आया मन लिख देते है
छ्न्द अलंकृत रस क्या जाने
भावों में लिख देते है
अंजाने में कवियों जैसा
रसना रस भर देते हैं
मधुर-मधुर झंकार करे वन
कोयल कूक सुनाते हैं
आँगन में तुलसी की पूजा
गुरुजन आशिष देते हैं
गंगा जमुना तीरथ संगम
वंदन रवि का करते हैं
भारत माँ श्री चरणों
अभिनन्दन नित करते है
हम तो चलते फिरते कवि हैं
कुछ ना कुछ कह जाते है
भाव भावना उत्तम रख कर
नवल सृजन नित करते हैं
ज्ञान दायिनी सुमिरि शारदा
अनुपम भाव जगाते है
हम भारत माँ के लाल
भाल चंदन सजते हैं
हम गाते है गुण गान
नमन धरती को करते है
भारत सा नहीं है देश
कहीं पर ऐसा नहीं वेश
नमन भारत को करते हैं
सवा अरब जनता के मन में
अगणित बोली वेश
नमन भारत को करते है
हम तो चलते -फिरते कवि हैं
जो आया मन लिख देते है
— राजकिशोर मिश्र ‘राज’ प्रतापगढ़ी