प्रेम के मार्ग
वैलंटाइन डे पर विशेष
संसार के सर्वाधिक चर्चित शब्दों में प्रेम का स्थान निर्विवादित है। ये सृष्टि प्रेम से ही उपजी है। प्रेम ही इसका उद्गम एवं प्रेम ही इसका लक्ष्य है। सब धर्मों का मूल प्रेम में ही निहित है। प्रेम का सर्वोपरि रूप माना गया है ईश्वर के प्रति प्रेम। विभिन्न धर्मों में प्रेम की व्याख्या भिन्न-भिन्न प्रकार से की गई है।
प्रेम की सबसे स्थूल व्याख्या ईसाई धर्म में मिलती है। ईसाई धर्म के आधारभूत ग्रंथ बाइबल में प्रेम की चार अवस्थाएँ बताई गई हैं। *स्टोर्जे*, *फीलिया*, *इरोस* एवं *अजापे*। स्टोर्जे वो प्रेम है जिसके अधिकारी हम जन्म से होते हैं और जो हमें प्राकृतिक रूप से प्राप्त होता है जैसे माता-पिता, भाई-बहनों या संतान का प्रेम। ये हमें अर्जित नहीं करना पड़ता। फीलिया उन संबंधों में निहित प्रेम है जो संबंध हम स्वयं बनाते हैं। ये एक प्रकार का मानसिक प्रेम है जिसमें देह का आकर्षण नहीं होता अपितु ये विश्वास पर आधारित होता है। फीलिया हम एक ही समय में कई लोगों के लिए महसूस कर सकते हैं। ये हम उन व्यक्तियों के प्रति अनुभव करते हैं जिनके साथ हमारी पसंद-नापसंद मिलती हो, या हमारे जीवन-मूल्य एक समान हों। इरोस में दैहिक प्रेम भी शामिल होता है परंतु ये केवल वासना नहीं है। इरोस किसी खास व्यक्ति के लिए उपजा प्रेम है जिसमें हम अपना तन-मन समर्पित कर देते हैं। अजापे प्रेम की वो अवस्था है जिसमें केवल प्रेम देने की इच्छा शेष रहती है। हम प्रेम का प्रतिसाद नहीं चाहते, अपने प्रियपात्र से कोई अपेक्षा नहीं रखते। हमारा प्रियतम चाहे हमें प्रेम न करे, चाहे हमारे पास न हो हमारे प्रेम में कोई कमी नहीं आती। परिस्थितियों से निरपेक्ष इस प्रेम को ईसाई धर्म में प्रेम का सर्वश्रेष्ठ रूप माना गया है।
सूफी संप्रदाय, जोकि इस्लाम के भारतीयकरण से उपजा है, प्रेम पर ही आधारित है। सूफी संतों ने प्रेम की महिमा को अतुलनीय बताया है। रूहानी इश्क अर्थात परमात्मा के प्रति प्रेम को ही उन्होंने जीवन का एकमात्र लक्ष्य बताया है। सूफी मत को मानने वाले मानव शरीर में चार चीज़ों को महत्त्व का मानते हैं। इन चारों मे दो भौतिक और दो चीज़ें अभौतिक हैं। भौतिक चीजों में नफ़स(इन्द्रियाँ), अक्ल(बुद्धि) तथा अभौतिक चीजों में कल्ब(हृदय) और रूप(आत्मा) शामिल हैं। सूफी दर्शन में प्रेम की साधना में चार अवस्थाएं बताई गई हैं *शरियत*, *तरीकत*, *हकीकत*, *मारिफत*। शरियत के अंतर्गत सलात(प्रार्थना), जकात(दान), सौम(उपवास), हज(तीर्थ) आते हैं। शरियत में इन सारी प्रक्रियाओं से गुजर ही गुरु प्राप्ति हो जाती है। तरीकत का अर्थ होता है, पद्धति व पवित्रता। साधना की इस स्थिति तक पहुँचने के लिए साधक को अपने समस्त विषय वासनाओं को त्याग कर हृदय को शुष्क बनाना पड़ता है क्योंकि हृदय को शुष्क बनाए व्यक्ति विषय-वासनाओं से मुक्त नहीं हो सकेगा और साधना की उसकी राह अवरुद्ध होती रहेगी। इसके लिए सूफी दर्शन सात आन्तरिक क्रियाओं और स्थितियों की जरुरत मानता है। तौबा, जहद (स्वेच्छागृहित दरिद्रता), सब्र (संयम, संतोष), शुक्र (उस परमसत्ता के प्रति शुक्रगुजार), रियाज़ (लगातार अभ्यास), तव्वाकुल (परम सत्ता के अनुराग और रहम पर पूरा भरोसा) और अंत में रज़ा अर्थात वैराग्य। सूफियों के मतानुसार इन सातों स्थितियों से गुजरने के बाद ही खुदा के लिए इश्क का जन्म होता है। हकीकत दरअसल उस परमसत्ता या खुदा की सच्चाईयों से रू-ब-रू होना है और अंत में मारिफत यानी परम ज्ञान की अवस्था। ऊपरी तीनों साधना अवस्था से गुजरने के पश्चात ही व्यक्ति मिहान या वस्ल की अवस्था में पहुँचता है। साधना की इस स्थिति में पहुँचने पर साधक अपने उस खुदा में अपने को मिला देता है, समाहित हो जाता है, जैसे जल में कोई घुलनशील पदार्थ मिलकर तदनुरूप हो जाता है, उसी तरह साधक भी अपने खुदा के नूर में मिलकर उसी अनुरूप अपने को पाता है। जब खुदा और उसके साधक का यह मिलन हो जाता है, तब इसी मिलन की स्थिति को वस्ल कहा जाता है। जैसा अद्वैतवाद में ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ है, वैसा ही सूफी परंपरा में ‘अनलहक’ है।
सनातन धर्म में प्रेम का स्थान अनन्य है। हमारे पूर्वजों ने प्रेम का व्यवहारिक एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण से बहुत विस्तृत विश्लेषण किया है। हिंदू परंपरा में प्रेम की पाँच सीढ़ियां बताई गई हैं। ये पांच सीढ़ियां हैं *काम*, *श्रृंगार*, *मैत्री*, *भक्ति* और *आत्म प्रेम*। काम प्रेम का प्राथमिक रूप भी है और निकृष्टतम रूप भी। इसलिए श्रृंगार का स्थान काम से ऊँचा है। इसमें एक-दूसरे को पाने की अाकांक्षा बलवती होती है। परंतु ये देह के स्तर से ऊपर उठकर व्यक्ति को आत्मिक प्रेम की ओर ले जाता है। राधा-कृष्ण का प्रेम इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। श्रृंगार से ही मैत्री का मार्ग निकलता है। इसमें देह बिल्कुल गौण हो जाती है एवं सहचर्य का भाव प्रबल हो जाता है। मैत्री में हम अपने प्रियपात्र को अपना समकक्ष मानकर सारी औपचारिकताओं का त्याग कर देते हैं। मैत्री का भाव सघन होकर भक्ति में परिवर्तित हो जाता है। तब हम अपने प्रिय पर पूर्ण विश्वास करने लगते हैं, तिल मात्र संदेह भी शेष नहीं रहता। अपने प्रियतम की प्रसन्नता में प्रसन्न रहना, जीवन में आने वाले दुखों को भी उसका प्रसाद समझकर ग्रहण करना ही भक्ति है। भक्त के जीवन का एकमात्र लक्ष्य ही होता है अपने प्रियतम में लीन हो जाना। जब वैसी स्थिति उत्पन्न होती है तो उसे कहते हैं आत्म प्रेम। इस स्थिति में भक्त एवं भगवान में कोई भेद नहीं रहता। प्रेमी को अपने प्रियतम में भी अपने ही रूप का बोध होता है एवं स्वयं में उसका दर्शन होता है। कबीर जी कहते हैं प्रेम गली अति सांकरी, जा में दुई न समाय। जब आप अपने प्रिय से एकाकार हो जाते हैं तभी प्रेम अपने लक्ष्य पर पहुंचता है। काम से आरंभ होकर आत्म प्रेम तक की यात्रा ही मनुष्य मात्र की वास्तविक यात्रा है।
आज ये जो हम लोग पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव में आकर वैलंटाइन जैसा त्योहार मनाने लग गए हैं ये अंधानुकरण के सर्वश्रेष्ठ उदाहरणों में से एक है। संसार प्रेम की अवधारणा देने वाले देश को यदि प्रेम का त्योहार आयात करना पड़े तो इससे अधिक खेद की बात और क्या होगी। वैलंटाइन डे मनाने में कुछ हर्ज नहीं है परंतु जिस देश में प्रेम ही धर्म हो उस देश में हर दिन प्रेम दिवस है। आपका दिन प्रेममयी हो, आपका जीवन प्रेममयी हो इन्हीं शुभकामनाओं के साथ आपका मित्र :- भरत मल्होत्रा।