अच्छे दिन कब आएँगे?
भारत माँ को लूट रहे थे, जो सत्ता के हाथों से
नोंच रहे थे खूनी पंजों, काट रहे थे दाँतों से
कामचोर-कमज़र्फ-कमीने, जो रूपयों में बिकते थे
जिनको अपने दाम न के ना, दाग कभी-भी दिखता थे
कर्तव्यों को भुला जिन्होंने, बस केवल व्यापार किया
पद के मद में डूब जिन्होंने, जी भर भ्रष्टाचार किया
शकुनि-सी चालें चलकर जो, धर्मराज बन जाते थे
सौ-सौ चूहे खा कर हरदिन, हज करने को जाते थे
जिनकी भूखी-लाल निग़ाहें, चीरहरण कर जाती थीं
नन्ही कलियों का यौवन जो, तार-तार कर जाती थीं
आस्तीन में जो अपनी, साँपों को पाला करते थे
नागों कोबांबी दर पर, दूध पिलायाकरते थे
ये कुएँ में रहनेवाले, हरदम घात लगाएँगे!
पूछ रहे बरसाती-मेंढ़क, “अच्छे दिन कब आएँगे?”
गुटखे-खर्रा-पान की पीकों, से धरती रंग जाते हैं
थूँक-थूँक जो जेठ दोपहरी में, पानी बरसाते हैं
जो रिश्वत के लेनदेन को, शिष्टाचार बताते हैं
नियमों के उल्लंघन को, अपना अधिकार बताते हैं
देश तोड़नेवालों को जो, हँसकर गले लगाते हैं
सत्ता की ख़ातिर अब्बा के, दिल पर छुरी चलाते हैं
जिनको सेना का पौरुष, एक खेल दिखाई देता है
नतमस्तक-सा खड़ा विश्व भी, फेल दिखाई देता है
नोटों का परिवर्तन जिनका, रंग उड़ा ले जाता है
नालों-नदियों-कचराघर में, जब कूड़ा हो जाता है
जातिवाद और तुष्टिकरण की, नीति ही हथकंडा हो
और विकास का नारा केवल, आरक्षण का गंडा हो
ये सावन के अंधे हैं, काले को हरा बताएँगे
पूछ रहे बरसाती-मेंढ़क, अच्छे दिन कब आएँगे?
अच्छे दिन लाना था जिनको, वे फाँसी पर झूल गए
मातृभूमि की ख़ातिर अपना, दीन-धरम सब भूल गए
भूल गए थे जो अपना घर, मात-पिता, तरुणाई को
भूल गए थे भैया-भाभी, पनघट और अमराई को
भूल गए थे जो बेटे के, मुँह में लगी मलाई को
भूल गए थे जो नन्ही-सी, चूड़ी बँधी कलाई को
भूल गए थे जो जननी के, धार बहाते नैनों को
भूल गए थे कंगन के सुर, प्रीत भरे रस बैनों को
भूल गए थे जो बहना की, मेहंदी लगी हथेली को
भूल गए थे जनम-मरण की, अनबुझ सभी पहेली को
भूल उन्हें जो बातें केवल, अच्छे दिन की करते हैं!
षडयंत्रों के जाल बिछाते, अपनी झोली भरते हैं
इतने वहशी हैं कि अब ये, लाश नोंचकर खाएँगे
पूछ रहे बरसाती-मेंढक, अच्छे दिन कब आएँगे??
— शरद सुनेरी