स्वप्न में कबीरदास जी से भेंट
बहुत दिनों बाद परीक्षा से मुक्ति मिली थी. सिर से मानो एक बोझ उतर गया था. परीक्षा के दिनों में तो न दिन का आराम, न रात में चैन. सुबह जल्दी उठो, रात को देर तक जागो. अब सोचा, खूब आराम से सोएंगे. बस लेटने की देर थी, कि निद्रा के रथ पर आरुढ़ होकर स्वप्नलोक में जा पहुंचे. अचानक क्या देखा, कि कवि सम्मेलन हो रहा है. नए-पुराने अनेक कवियों का सम्मेलन मुझे आश्चर्यचकित कर रहा था. एक ओर सूर-तुलसी-कबीर तो दूसरी ओर प्रसाद-पंत-निराला. क्या ही निराला सम्मेलन था! हालांकि मैंने अब तक अनेक कवियों की रचनाएं पढ़ी हैं, जिन्होंने मेरे मन-मस्तिष्क को प्रभावित भी किया, परंतु जिस कवि की रचनाएं मेरे मन-मस्तिष्क पर अमिट छाप छोड़ गई हैं, वह हैं कबीरदास.
कबीरदास मेरे प्रिय कवि हैं, इसलिए मैं प्रतीक्षा करने लगी, कि कब अवसर मिले और मैं कबीरदास से एक अदद साक्षात्कार ले डालूं. ख़ैर, मेरी प्रतीक्षा की घड़ियां समाप्त हुईं. कबीर जी को प्रणाम करने के पश्चात मैंने प्रथम प्रश्न किया- ”कबीर जी, आपके जन्म के विषय में कई किंवदत्तियां प्रचलित हैं, क्या आप अपने जन्म के विषय पर कुछ प्रकाश डालेंगे?”
वे बोले-
”चौदह सौ पचपन साल गए, चन्द्रवार एक ठाठ ठए
जेठ सुदी बरसायत को, पूरनमासी प्रकट भए.
घन गरजे दामिनि दमके, बूँदे बरसे झर लाग गए
लहर तालाब में कमल खिले, तहै कबीर भानु प्रकट भये.”
माता-पिता के बारे में पूछने पर वे बोले- ”जब मैंने होश संभाला, तो नीरू और नीमा को अपने माता-पिता के रूप में पाया, जो जुलाहे का व्यवसाय करते थे.”
संभवतः इसलिए आपने लिखा था- ”झीनी-झीनी बीनी चदरिया.” मेरी जिज्ञासा थी.
”रचनाओं में व्यवसाय का प्रभाव आना स्वाभाविक ही है.” कबीर जी उत्साहित होकर बोले.
”आपकी शिक्षा?” मेरा अगला प्रश्न था.
कबीर जी का सहज उत्तर था- ”मसि कागद छूवो नहीं, कलम गही नहिं हाथ”.
मैंने हैरानी से कहा- ”लेकिन लोग रामानंद जी को आपका गुरु बताते हैं.”
कबीर जी मुस्कुराकर बोले- ”हां, वे भी सत्य कहते हैं, वे मुझे राम-नाम का मंत्र देने वाले दीक्षा-गुरु हैं.”
विवाह के विषय में पूछने पर कबीर जी तनिक शर्माकर-सकुचाकर बोले- ”मेरा विवाह लोई नामक शिष्या से हुआ. मेरी दो संतानें भी हुई- कमाल व कमाली.”
”यह तो वास्तव में कमाल की बात है, क्योंकि आपने तो नारी को माया कहा है न!” मैं बोली.
कबीर जी तुनककर बोले- ”हां, नारी के विषय में ज्ञान होने पर मैंने कहा-
”माया महा ठगनी हम जानी
तिरगुन फांस लिए कर डोले, बोले मधुरे बानी.”
और
”नारी की झांई परत अन्धा होत भुजंग,
कबिरा तिनकी कौन गति नित नारी के संग.”
”लोई चाची नाराज़ नहीं हुईं?” मैंने ज़रा ठिठौली के स्वर में कहा.
”अरे नहीं, वह बेचारी सीधी-सादी थी.” कबीर जी आश्वस्त भाव से बोले.
”लोग आपको समाज-सुधारक क्यों कहते हैं?” मैंने कुरेदा.
”आपने यह प्रश्न बहुत अच्छा किया है, भतीजी, मैंने लोगों को माला फेरते देखकर कहा-
”माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर.”
ऊंचे स्वर में अजान पर मेरा मत था-
”कांकरि-पाथर जोरिके, मसजिद लियो बनाय,
ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय.”
मांसाहारी लोगों से मेरा कहना है-
”बकरी खाती पात है, ताकी काढ़ी खाल,
जो नर बकरी खात हैं, उनको कौन हवाल!”
जाति प्रथा के बारे में मेरी राय है-
”जात-पाँत पूछे नहीं कोई
हरि को भजै सो हरि को होई.”
गुरु की महत्ता को प्रस्थापित करने के लिए मैंने कहा-
”गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूँ पाँय,
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय.”
मैंने कहा- ”इसका अभिप्राय कि गुरु द्वारा दिया हुआ ज्ञान ही सर्वश्रेष्ठ है और…….”
”अरी भतीजी!” वे बीच में ही टोककर बोले, ”साथ ही प्रेम का महत्त्व भी कम नहीं, क्योंकि-
”पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय.”
उनके पाण्डित्य से अभिभूत मैं बोली- ”सचमुच स्पष्टवादिता तो आपके काव्य की प्रमुख विशेषता है. आपने इस संसार को क्षणिक मानते हुए प्राणियों को प्रभु-भजन के लिए प्रेरित किया. सामान्य बोलचाल की सरल भाषा में सुंदर पद, दोहे, गीत रच डाले. आप वाणी के जादूगर हैं, कल्पना के अग्रदूत हैं, सत्साहित्य के स्वामी हैं. विषयवस्तु व भाषा-शैली पर आपका पूरा-पूरा अधिकार है. आपके काव्य में ऐसा मार्मिक सारगर्भित व्यंग्य है, जो सामाजिक बुराइयों पर सीधे चोट करने वाला है. आप महान हैं, महान हैं, महान हैं…….”
इतने में माताजी की आवाज़ सुनाई दी- ”अरी बिटिया! कौन महान हैं?”
मैंने झट से आंखें खोल दीं. देखा तो वहां न कबीरदास जी थे, न कवि सम्मेलन, बस शेष थी उस अद्भुत स्वप्निल साक्षात्कार की स्वप्निल स्मृति.”
(51 साल पहले 1966 में स्नातक परीक्षा के बाद लिखा गया लेख)