कमजोर वर्ग को मुख्यधारा से जोड़ने की जरुरत
कमजोर वर्ग को मुख्यधारा से जोड़ने की जरुरत
यदि हम प्रेमचंद की कहानी उठाकर देखें तो हमें यह ज्ञात होता है कि आज भारतीय समाज में वही सामाजिक स्थिति बनी हुई है जो मुंशीजी के समय थी. यह कितना बड़ा सोच का विषय है कि हमने पिछले ७० वर्षों में कई सामाजिक परिवर्तन किए, कई आर्थिक परिवर्तन किए, कई राजनीतिक परिवर्तन किए परंतु साहित्य से सीख लेने की कभी कोशिश नहीं की. साहित्य को स्कूलों में, महाविद्यालयों में और विश्वविद्यालयों में पढ़ाया गया, अंक प्राप्ति करवाई गई परंतु साहित्य का उद्देश्य कभी पूर्ण ना हो पाया. हमने कभी पढ़ा था और मानते हैं कि ‘साहित्य समाज का दर्पण होता है’. साहित्य समाज के हितार्थ रचा व गढ़ा जाता है पर आज क्या सही रूप में हम साहित्य को न्याय संगत बना पाए हैं. शायद नहीं. तभी तो प्रेमचंद का ‘झूरी’ आज भी ठोकर खाता दिखाई देता है. प्रेमचंद का ‘सूरदास’ आज भी व्यवस्था के सम्मुख लाचार नजर आता है और यह सब कुछ मात्र इसलिए हो पा रहा है क्योंकि इस देश ने लोकतंत्र को स्वीकारा है पर अपनाया नहीं, समझा नहीं. अन्यथा विश्व के सम्मुख प्रतिमान गढ़नेवाला नए आयाम स्थापित करने वाला लोकतंत्र ‘अपंग’ और ‘लाचार’ दिखाई नहीं देता.
आज जिस तरह से समाज में वर्ग भेद बढ़ता चला जा रहा है वह कहीं ना कहीं इस देश की सामाजिक व्यवस्था के लिए घातक है. आज ‘कमजोर वर्ग’ और ‘झुग्गी झोपड़ियों’ में रहने वाले या सड़कों पर जीवन यापन करने वाले इस समाज की व्यवस्था से पूर्ण रूप से कट चुके हैं. इस कटाव को दूर करने की कोशिश इस देश की व्यवस्था ने क्या कभी की है…? क्या आलीशान कारों में, बड़े-बड़े बंगलों में, चुनावी भाषणों में जिनका जिक्र होता है, जिन पर घोषणा पत्र बनाया जाता है उनके हितार्थ उन्हें मुख्यधारा से जोड़ने के लिए कभी काम हुआ है..? यदि हुआ है तो शायद वह प्रयास असफल रहा हो. यदि नहीं हुआ तो क्या कारण हो सकते हैं. जिस आधार पर हम इस व्यवस्था से मुख्यधारा से कटे हुए लोगों को जोड़ने का प्रयास कर सकते हैं. एक बड़ा साधारण-सा प्रश्न हम सभी के सम्मुख नज़र आता है कि दिल्ली और राज्यों की राजधानियों में रहने वाले जो तंत्री-मंत्री होते हैं क्या उन्हें समाज की यह व्यवस्था दिखाई नहीं देती होगी…? यदि दिखाई देती होगी तो क्या ठोस कदम उठाए गए हैं…? समाज विज्ञान कहता है कि किसी समाज को सुधारने के लिए अधिकतर 10 वर्ष का समय लग सकता है पर 70 वर्ष बहुत हो गए. जब देश आजाद हुआ, देश का संचालन करना शुरू किया गया तब के जो सवाल थे, जो समस्याएं थी, क्या हमने उन पर, उन्हें पूरी तरह से हल करने में कामयाबी पाई है..? यदि हमने कामयाबी पाई है तो मात्र नौटंकी करने में, बिल्डिंग बनाने में, सड़के बनाने में, संकुचित कपड़े पहनने में, संकुचित विचारधारा अपनाने में और अपनी सभ्यता का खिलवाड़ करने में. इसके अलावा हमने कोई सफलता नहीं पाई.
खेद का विषय है कि हमारे देश की पहचान कृषि प्रधान देश के रूप में हुआ करती थी. जब हम विद्यालय में पढ़ते थे तो निबंध लिखाया जाता था जिसका विषय होता ‘मेरा भारत महान. जिसकी पहली पंक्ति होती, “भारत एक कृषि प्रधान देश है. किसान यहां देवता की तरह पूजे जाते हैं.”
पर मान्यवर परिस्थिति बदलते देर नहीं लगती. आज हमारी व्यवस्था ने इन पंक्तियों को निरर्थक बना दिया है. आज किसान कहां है.. यह कहने की आवश्यकता नहीं और खेती कृषि किसानी यह सब कुछ मात्र कल्पना के विषय रह गए हैं. आज इस देश का शायद ही कोई युवा किसान बनने का सपना संजोता होगा. यह भी कहना उचित होगा कि वह दिन दूर नहीं जब इस देश को साधारण-सी सब्जी के लिए विदेश से आयात करना पड़ेगा. हम आज भी कई सारी चीजें आयात कर रहे हैं. जिनका उत्पादन कभी हमारे देश में होता था. हमारी धरती जो सोना उगलती थी हमने उस पर बंजर मकान खड़े कर दिए हैं. हमने गांव को सुधारने की बजाए गांव को खत्म कर दिए हैं. हमने सुलझी ग्रामीण व्यवस्था को अस्त-व्यस्त दिनचर्या में उलझा दिया है.
यह सब कुछ हमारा क्या भविष्य तय करता है यह विषय आज सोचने का है, चिंतन और मनन करने का है. आज जिस रूप में हमारी मुख्यधारा से वर्ग भेद की बलिवेदी चढ़ता निम्नतम स्तर का वर्ग दिखाई दे रहा है, वह भविष्य के कई संकेत दिखा रहा है.
मान्यवर, आज हमें इस देश को, देश की व्यवस्था को और नागरिकों को इस बात का एहसास करने की जरूरत आन पड़ी है कि हम और आप कितने भी आधुनिक हो जाएं पर पेट भरने के लिए रोटी, सहारा देने के लिए हाथ, दुख बांटने के लिए कंधा हमें केवल अपनी सभ्यता दे सकती है. आज समय की जरूरत है कि हम मुख्यधारा से कटे हुए सभी अंगों को जोड़ें. इस देश के आखरी कोने के आखरी व्यक्ति के आंसू को जब तक पोछा नहीं जाता मेरा मानना है हमारा मानना है कि ऐसी आधुनिकता कोई काम की नहीं. आज ऐसे वर्गों को सहारा देकर एक करने की, उनमें समाज और व्यवस्था के प्रति सकारात्मक भाव लाने के प्रति जागरूकता लाने की आवश्यकता है. यकीन मानिए जिस दिन हम ऐसा करने में सक्षम हो गए, देश की व्यवस्था को इन तक पहुंचा दिया और छिटक कर बिखरे हुए मोतियों को एक कर लिया यकीन मानिए उस दिन यह ‘सोने की चिड़िया’ कहलाने वाला देश पुनश्च ‘सोने की चिड़िया’ के रूप में पहचाना जाएगा.
प्रा. रवि शुक्ल ‘प्रहृष्ट’
दिल्ली पब्लिक स्कूल, नासिक
8446036580