बच गया पंजाब!
हाल ही में जिन पाँच राज्यों में विधानसभा चुनाव सम्पन्न हुए हैं उनमें पंजाब का चुनाव परिणाम सबसे अलग रहा। इसमें कांग्रेस को लगभग दो-तिहाई बहुमत मिला, आम आदमी पार्टी दूसरे नंबर पर आई और अकाली-भाजपा गठबंधन तीसरे स्थान पर खिसक गया, जो पिछले १० साल से प्रदेश में राज कर रहा था।
वैसे अकाली-भाजपा गठबंधन की हार की आशंका पहले से थी, क्योंकि १० साल से शासन करने के कारण प्रदेश में सरकार विरोधी वातावरण का निर्माण हो गया था। ड्रग के व्यापार में कई वरिष्ठ अकाली नेताओं के लिप्त रहने के चलते भी गठबंधन की छवि धूमिल हुई थी। लेकिन यह आशंका बिल्कुल नहीं थी कि वह तीसरे स्थान पर लुढ़क जाएगा।
कांग्रेस को बहुमत मिलना अवश्य आश्चर्यजनक है क्योंकि मुख्य विपक्षी दल के रूप में कांग्रेस ने ऐसा कुछ नहीं किया था कि उसे दो-तिहाई बहुमत मिल जाता। वास्तव में सरकार विरोधी मतों का एक बड़ा भाग अनायास ही कांग्रेस की ओर चला गया। नवजोत सिंह सिद्धू के भाजपा छोड़ने और कांग्रेस में जाकर अकाली सरकार और मुख्यत: बादल परिवार के विरुद्ध धुआँधार प्रचार करने का भी इसमें बड़ा योगदान रहा।
सबसे अधिक आश्चर्यजनक बात है आआपा का दूसरे क्रमांक पर आ जाना। यों तो दिल्ली के अलावा पंजाब और गोआ में ही आआपा का कुछ प्रभाव है। इनमें से गोआ में तो वह अपने सभी प्रत्याशियों की ज़मानत ज़ब्त कराकर अंडा बटोर लायी, लेकिन पंजाब में काफी वोट पाकर अकालियों को भी पछाड़कर दूसरे नम्बर पर पहुँच गयी।
उल्लेखनीय है कि २०१४ के लोकसभा चुनावों में आआपा को केवल पंजाब से तीन स्थानों पर सफलता मिली थी। इसीलिए आआपा के बड़बोले नेता केजरीवाल पंजाब में ११७ में से १०० सीटें जीतने का दावा कर रहे थे, पर वे २० ही जीत सके। केजरीवाल द्वारा किया गया आक्रामक प्रचार भी अधिक सफल नहीं रहा। हालाँकि कई चुनाव पूर्व के सर्वेक्षणों और चुनाव पश्चात अनुमानों में भी आआपा के बहुमत प्राप्त करने या उसके निकट रहने की भविष्यवाणियाँ की गयी थीं, परन्तु वे सब गलत निकलीं।
पंजाब से जो जानकारियाँ प्राप्त हुई हैं उनसे पता चलता है कि इस बार पंजाब में आआपा के प्रचार में खालिस्तान समर्थक आतंकवादियों की ताकत लगी हुई थी। कनाडा जैसे देशों में खालिस्तान समर्थक सिखों की बड़ी संख्या है जो बहुत पैसेवाले भी हैं। वे अकाली और कांग्रेस दोनों से घृणा करते हैं। इसलिए वे पंजाब में ऐसी किसी भी पार्टी का समर्थन करने को तैयार रहते हैं जो उनके खालिस्तान के सपने को साकार करने में उनकी सहायता कर सके।
देश के दुर्भाग्य से उन्हें आआपा के रूप में एक ऐसी पार्टी मिल गयी। अत: उनका धन विभिन्न स्रोतों से आआपा के पास आकर चुनाव प्रचार में लगने लगा। आये दिन होने वाले जनमत सर्वेक्षणों ने भी उनका मनोबल बढ़ाया। ऐसी स्थिति में सभी देशभक्त भारतीयों में चिन्ता व्याप्त हो गयी कि अगर पंजाब में केजरीवाल के हाथ में सत्ता आ गयी तो वह दिल्ली की तरह पंजाब जैसे विकसित प्रदेश का सर्वनाश तो करेंगे ही, देश को फिर से खालिस्तानी आतंकवाद को भी भुगतना पड़ेगा।
परन्तु ऐसी बातें कभी छिपी नहीं रहतीं। इसलिए खालिस्तान की आहट पाते ही पंजाब का गैर-सिख हिन्दू मतदाता, जो अकाली सरकार से नाराज था, आआपा के बजाय कांग्रेस की ओर खिसक गया। इस तरह बिल्ली के भाग्य से छींका टूटा तो कांग्रेस को बहुमत मिल गया और पंजाब केजरीवाल के चंगुल में जाने से बच गया। दिल्ली में तो उपराज्यपाल ने केजरीवाल की नाक में नकेल डाल रखी थी, परन्तु पंजाब के राज्यपाल कुछ नहीं कर पाते, क्योंकि पंजाब एक पूर्ण राज्य है।
कई भाजपा समर्थक कहते हैं कि भाजपा को इस बार अकालियों का साथ छोडकर पंजाब में अकेले चुनाव लड़ना चाहिए था। हो सकता है कि उनके अनुसार करने पर भाजपा को वहाँ वर्तमान में मिली ३ सीटों से कुछ अधिक सीटें मिल जातीं, लेकिन ऐसा करना दीर्घकालीन राजनीति की दृष्टि से उचित न होता, क्योंकि अकाली दल ही भाजपा का सबसे पुराना और विश्वसनीय साथी रहा है। उसका साथ छोड़ना अनैतिक व हानिकारक होता।
पंजाब में कांग्रेस को बहुमत मिलने से हमें पहली बार कांग्रेस के जीतने पर प्रसन्नता हुई है। अगर यहाँ आआपा जीत जाती तो पंजाब का और पूरे देश का बहुत दुर्भाग्य होता। साथ ही मोदी सरकार के लिए एक नया सिरदर्द पैदा हो जाता। इसलिए अच्छा ही हुआ कि भले ही कांग्रेस आ गयी, लेकिन पंजाब बच गया।
— विजय कुमार सिंघल
चैत्र कृ ६, सं २०७३ वि. (१८ मार्च, २०१७)