नीयत और नियति…
नीयत और नियति
समझ से परे है
एक झटके में
सब बदल देता है,
ज़िन्दगी अवाक्!
काँधे पर हाथ धरे
चलते-चलते
पीठ में गहरी चुभन
अनदेखे लहू का फ़व्वारा
काँधे पर का हाथ
काँपता तक नहीं,
ज़िन्दगी हत्प्रभ!
सपनों के पीछे
दौड़ते-दौड़ते
जाने कितनी सदियाँ
गुज़र जाती
पर सपने
न मुठ्ठी में
न नींद में,
ज़िन्दगी रूखसत!
सुख के अम्बार को
देखते-देखते
चकाचौंध से झिलमिल
दुख का ग़लीचा
पाँवों के नीचे बिछ जाता,
ज़िन्दगी व्याकुल!
पहचाने डगर पर
ठिठकते-ठिठकते
क़दम तो बढ़ते
पर पक्की सड़क
गड्ढे में तब्दील हो जाती,
ज़िन्दगी बेबस!
पराए घर को
सँवारते-सँवारते
उम्र की डोर छूट जाती
रिश्ते बेमानी हो जाते
हर कोने में मौजूद रहकर
हर एक इंच दूसरों का
पराया घर पराया ही रह जाता,
ज़िन्दगी विफल!
बड़ी लम्बी कहानी
सुनते-सुनते
हर कोई भाग खड़ा होता
अपना-पराया कोई नहीं
मन की बात मन तक
साँसों की गिनती थमती नहीं,
ज़िन्दगी बेदम!
नियति और नीयत के चक्र में
लहूलूहान मन,
ज़िन्दगी कबतक?
– जेन्नी शबनम (21. 3. 2017)
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