विश्व गौरैया दिवस — २०मार्च
बालकपन की दास्ताँ भी अजीब होती , माया मोह से दूर उसका घरौंदा होता है |
नीलगगन में पक्षी का स्वछ्न्द उड़ाना , कौतूहल बस उनकी उड़ान को देखना , नवओज का संचार कर देता है | काश मेरे भी पर होते , हम भी नीले गगन मे उड़ रहे होते | मिट्टी में खेलना नव आत्मीयता का संचार कर देती थी | चिंता , काम , क्रोध , लोभ , मोह अहंकार , माटी के शरीर से दूर रही , काश तू वह बचपना लौटा दे | आपकी वह आत्मीयता अब सिर्फ़ कागजों में सिमट कर रह गयी है | प्रयोजन वाद का खुमार आज सर चढ़ का बोल रहा है | पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण माँ से उसका लाल छीन रहा है , पत्नी से उसका पति , पति से पत्नी , भाई से बहन आदि विसंगतियाँ हमारे आहार -विहार से प्रस्फुटित हो रही है ,| हमारे — एक मित्र को एक गौरया मिली कहने लगी अब मेरा जीना भी दुर्लभ हो गया है | लोग अंधाधुंध वृक्षों को काट रहे हैं | जंगल में आतंकवादी घुस गये है , किस डाल पर अपना नीड बनाऊँ | गर्मी बरसात ठंडी अब सही नहीं जाती | न जाने कितनी हमारी प्रजातियाँ विलुप्त हो रही हैं | हे मानव जाति तेरे ऐशो आराम नें मुझे कहीं का नहीं छोड़ा | कोई जंगल काट रहा कोई मेरा शिकार कर रहा है | रसायनिक प्रयोग , मोबाइल फोन एवम् मोबाइल टॉवरों की तरंगे हमें नष्ट कर रहें है , मुझे यही चिंता खाए जा रही कही मेरी वंशावली विलुप्त की श्रेणियों में ना आ जाय । तिनके – तिनके चुनकर अपने खोंसले को बनाती हूँ , फिर उजड़ जाती हैं , तुझे एक बार घर बनाने में कमर टूट जाती है । बता इन्सा मै कितने घोसले बनाऊँ । खाना पानी सब दुर्लभ होते जा रहे है । बालकपन में मेरे पीपल के पेड़ की सबसे ऊँची डाली पर गिद्ध का घोसला था । अब कहीं दिखते नहीं । गौरया का दर्शन सुबह का चहकना कहीं माँ कह एक कहानी बन कर ना रह जाय । जीवों पर दया करो – शुद्ध शाकाहार का उपयोग करो । आहार से संस्कार का अंकुरण होता है । जैसा खाएँ अन्न , वैसा रहे मन ।
— राजकिशोर मिश्र ‘राज’