हाथों की लकीरें
कभी बँद करूँ मैं मुट्ठी, तो कभी बँद मुट्ठी मैं खोलूँ !
क्या ढूंढ़ते हैं इनमें, ये राज कैसे बोलूं !!
सब जोड़ कर लकीरें, इक अक्स हैं बनाते !
फिर करके बँद मुठ्ठी, उसको ही हैं छुपाते !!
एे काश ! ऐसा होता कि ख्वाब पूरे होते !
तो छोड़ कर लकीरें, हम ख्वाब ही सजोते !!
ख्वाबों-ख्यालों की दुनिया, यूँ तो बड़ी हसीं है !
सब मिल जाता है उसमें, हकीकत में जो नहीं है !
….. किस्मत में जो नहीं है !!
अंजु गुप्ता