गीत/नवगीत

गीत : वनपाखी

मन उड़ता था वनपाखी बनकर

हवा, पेड़, फूल – पत्तों से,
बातें करता था जमकर
रोज सवेरे उठकर माँ से
कहता था हंसकर
तू भी तो उड़ वनपाखी बनकर …
मन उड़ता था वनपाखी बनकर

चूल्हे -चौके की अनबन में,
करती हो क्यूं झगड़ा दिनभर
छौड़ सभी की चिंता, माँ तू
जी ले तू भी जी भरकर …
तू भी तो उड़ वनपाखी बनकर
मन उड़ता था वनपाखी बनकर

हो गई इक दिन कौख पराई
ले गया कोई साथी बनकर
आया था जो साथी बनकर
निकला वो तो बहेलिया
तोड़ दिए सब मन के पांखी
उड़ गया मन वनपाखी बनकर
रह गया ग़म साथी बनकर

अब सोचूं हूँ ‘चंद्रेश’ क्यूं जलती थी
माँ दीये-सी बाती बनकर
मन उड़ता था वनपाख़ी बनकर

चन्द्रकांता सिवाल ‘चन्द्रेश’

चन्द्रकान्ता सिवाल 'चंद्रेश'

जन्म तिथि : 15 जून 1970 नई दिल्ली शिक्षा : जीवन की कविता ही शिक्षा हैं कार्यक्षेत्र : ग्रहणी प्ररेणास्रोत : मेरी माँ स्व. गौरा देवी सिवाल साहित्यिक यात्रा : विभिन्न स्थानीय एवम् राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित कुछ प्रकाशित कवितायें * माँ फुलों में * मैली उजली धुप * मैट्रो की सीढ़ियां * गागर में सागर * जेठ की दोपहरी प्रकाशन : सांझासंग्रह *सहोदरी सोपान * भाग -1 भाषा सहोदरी हिंदी सांझासंग्रह *कविता अनवरत * भाग -3 अयन प्रकाशन सम्प्राप्ति : भाषा सहोदरी हिंदी * सहोदरी साहित्य सम्मान से सम्मानित