हिन्दी साहित्य के उत्थान के लिए पुस्तकें ख़रीदकर पढ़ें
हिंदी साहित्य के उत्थान के लिए आओ आज नववर्ष के इस पावन दिवस पर प्रण लें कि हम आज से पुस्तकें खरीद कर ही पढ़ेंगे…..
मित्रो, प्रत्येक लेखक का यह स्वप्न होता है कि उसका सृजन पुस्तक के रूप में प्रकाशित हो और ज्यादा से ज्यादा लोग उसे पढ़ें भी । प्रत्येक वर्ष हिंदी साहित्य की लाखों किताबें प्रकाशित होती हैं लेकिन हिंदी भाषा का इतना बड़ा पाठक वर्ग होने के बाद में सार्थक साहित्य पाठकों तक नहीं पहुँच पाता है । बड़े लेखकों की पुस्तकें कोई भी बड़ा प्रकाशक छाप देता है, उसका खूब प्रचार भी करता है क्यों कि वह तुरंत बिक जातीं हैं और उसमें उन्हें लाभ नज़र आता है परन्तु ऐसे लेखक जो लिख तो बहुत अच्छा रहे हैं लेकिन साहित्य जगत में अपनी पहचान के लिए संघर्ष कर रहे हैं उनकी पुस्तकें कोई बड़ा प्रकाशक छापने को तैयार नहीं होता है क्योंकि सामान्यतः हिंदी पाठकों में पुस्तकों को खरीद कर पढ़ने की आदत नहीं है और ऐसे लेखकों की पुस्तकों को छापना प्रकाशकों के लिए घाटे का सौदा होता है, अगर कोई बड़ा प्रकाशक छापने को तैयार भी हो जाये तो अलग-अलग तरीके से लेखक को मोटी राशि खर्च करनी पड़ती है । किसी असुविधा और भागदौड़ से बचने के लिए लेखक अपने पैसे से छोटे प्रकाशकों से पुस्तक छपवा लेता है ।
नए लेखकों को यह पता ही नहीं होता कि अपनी पुस्तकों को किस तरह पाठकों तक पहुंचायें। पुस्तक का भव्य लोकार्पण होने के बाद सामान्यतः पुस्तकें लेखकों की अलमारी की शोभा बढ़ातीं है या मिलने वाले सगे-संबंधियों और मित्रों को भेंट कर दी जाती हैं। यह भी देखा गया है कि जिन्हें पुस्तकें भेंट की जाती हैं उन्हें साहित्य में कोई विशेष रूचि ही नहीं होती बस मुफ्त उपहार में मिली पुस्तक उनकी भी अलमारी की शोभा बढ़ाती रहती है । यह भी देखा गया है कि किसी बड़े साहित्यकार या राजनीतिज्ञ को भेंट स्वरुप पुस्तक देने और फोटो खिंचवाने का बहुत चलन बढ़ा है लेकिन वहां भी पुस्तकों को पढ़ने का समय किसी बड़े व्यक्ति के पास नहीं होता है । थोड़े समय बाद लेखक को अपनी उस अनमोल कृति की दुर्दशा का आभास होने लगता है और आर्थिक कारण कहें या उसकी पुरानी पुस्तकों की दशा, वह और किताबों के प्रकाशन की हिम्मत नहीं जुटा पाता है । इसकी बड़ी हानि हिंदी साहित्य को उठानी पड़ रही है क्यों कि आर्थिक दवाब के चलते सार्थक साहित्य छपने से वंचित हो रहा है और आने वाले समय में हमारी पीढ़ी अच्छे साहित्य से वंचित हो रही है, जो साहित्य उसे उपलब्ध कराया जा रहा है वह स्तरीय नहीं है ।
अब प्रश्न उठता है कि इसका हल क्या है ? मेरा मानना है कि हिंदी साहित्य में बहुत सा वर्ग ऐसा है जो पाठक भी है और लेखक भी । हम यह प्रण कर लें कि हम पुस्तकें सिर्फ खरीद कर पढ़ेंगे । अपने मासिक खर्च का एक छोटा सा हिस्सा पुस्तकों की खरीद पर खर्च करें, इससे हमारे घरों में छोटा सा पुस्तकालय भी बनता जायेगा, हमारे बच्चों और घर के सदस्यों में भी हिंदी साहित्य के पठन के प्रति रूचि पैदा होगी ।
एक और बात….लेखक को ख़ुशी होती है जब उसकी पुस्तक किसी बड़े लेखक/साहित्यकार को भेंट की जाती है । यह खुशी और बढ़ जायेगी जब हमारे आदरणीय/आदरणीया आशीर्वाद स्वरुप एक बहुत छोटी धनराशि लेखक को दे दें । यह राशि 101/-, 51/- या कुछ भी हो सकती है । हमारे घरों में डाक से आने वाली पुस्तकों/पत्रिकाओं के लिए भी इस तरह या इससे मिलती-जुलती प्रक्रिया अपनाई जा सकती है। यह राशि इतनी भी बड़ी नहीं है जिसे वहन नहीं किया जा सकता है ।
शायद बात छोटी सी है…पर अगर हम अपने-अपने स्तर पर इसे प्रारम्भ कर पाए तो निश्चित रूप से हिंदी साहित्य के लिए एक बहुत सार्थक कदम होगा और इस प्रक्रिया से हम स्वयं का और दूसरे लेखकों का भी भला कर पाएंगे । अगर उचित लगे तो आज से ही इसे अपनाएं और हिंदी साहित्य के उत्थान में अपना बहुमूल्य योगदान दें ।