मन !
मन..
मरुस्थल सा लगता मन
सहमी सहमी सी ज़िन्दगी
कितने उतार और चढ़ाव
कभी कोई आस जगती
फिर तूफ़ान औ बंवडर
उन स्वर्णिम ख्वाबों को
जो कभी कभी खुद पे
इतराने लगते हैं यूंही
पर मन को समझना होगा
सीमाओं को परखना होगा
नहीं उग सकते वहां ऐसे
लहलहाते हरे भरे मन को
आन्नंदित करने वाले फूल
खुशबू बिखेरते सारे वातावरण को
संगीतमय करते पर मन शायद
अब हार चुका है कुछ बंदिशो से
पर मन को सावन सा बनना होगा
खुद पर भी बरसना होगा
समेटने होंगे टूटे अधूरे से ख्वाब
उन्हें फिर सहेजना होगा !
कामनी गुप्ता***
जम्मू !