भारतीय नारी और उसकी दशा-दिशा
इस व्याखान माला को चार हिस्सों में बांटकर कहना चाहूँगा। यह विषय स्वयं में काल के तीनों भेदों को सिमटाती हुई भूत, वर्तमान और भविष्य को निर्देशित करती है। जब हम भारत और भारतीयता के भूतकाल पर नजर डालें तो उससे पूर्व सन्धि और विच्छेद का विवेचन भी लाजमी है। भारत शब्द का विच्छेद करें तो
भा+रत=भारत। भा का मतलब, मायने होता है ज्ञान और ज्ञान में रत रहनेवाला भू भाग ही भारत कहलाने को अधिकृत है दूसरा विश्व का कोई भी भू भाग नहीं।
अब ज्ञान-विज्ञान यानी विवेकपूर्ण विशेष ज्ञान द्वारा वर्तमान विषय -“भारतीय नारी और उसकी दशा-दिशा” पर विचार करें तो पाएंगे – भारतीय नारी की एक विशुद्ध श्रद्धापूर्ण शालीन छवि जिसके आगे सर स्वत: श्रद्धावनत हो जाता है। ऐसी भी बात नहीं कि पीढ़ियाँ नहीं चली, सन्तानोपादन की प्रक्रिया नहीं चली। चली। मगर एक सात्विक और सांस्कृतिक श्रृंगार के छाँव तले। जिससे कितने ऋषि-मुनि, विचारक, दार्शनिक, वैज्ञानिक तथ्य समेटे न जाने कितने लोग पैदा हुए इस भूतकालीन भारत के भू भाग पर। वह भी एक भारतीयता थी और वर्तमान भी एक वास्तविकता है।
जहां, बेरोजगार, शिथिल शरीर रोगयुक्त नशेबाज, इश्क का फितूर लिए काम-वासनाग्रसित नशीले नौजवान। जो अवसाद की स्थिति को स्पष्ट करता है। जब व्यक्ति स्वयं से हार जाता है तब उन परिस्थितियों से स्वयं को कुछ देर दूर रखने के लिए नशे की दुनियां में खो जाना चाहता है। अंततः नशे का शिकार हो जाता है।
वर्तमान भारत- अपनी पुरानी मान्यताओं मर्यादाओं को भुलाकर यंत्रवत पशुवत जीवन जीने को विवश है। मगर, ध्यान रहे जहाँ पशु प्रकृति से संचालित है वही मनुष्य,या आदमी संस्कृति से संचालित हैं । जब संस्कृति ही नहीं बचेगी तो क्या मनुष्य प्रकुति से संचालित हो पायेगा ? कहने का तातपर्य न वह संस्कृति का छाँव पा सकेगा औ न ही प्रकृति का ही। ना स्त्रीलिंग ना पुल्लिंग फिर, न अन्धकार न प्रकाश तब उहापोह ही शेष बचता है। ना विश्व पूरब का बन सका और न ही पश्चिम का। जहां मनुष्य पश्चिम का खुलापन भोगेच्छा युक्त सुविधाभोगी उधार ले लिया जितने अंश में उतने या उससे अधिक अंश में भारतीयता से दूर भी होते गए। मनुष्य में केवल पुरुष ही नहीं आते, नारियाँ भी आती हैं और आज के परिचर्चा के विषय के केंद्र में नारी ही है। अतः नारी को ही केंद्रबिंदु मानकर विषय की विवेचना करना लाजमी और न्याय संगत भी है।
भारत के भूत ने जहाँ सीता, मदालसा, शबरी, अनसुईया, मीराबाई, लक्ष्मीबाई, सहजो त्याग समर्पण और कर्तव्यनिष्ठवान विद्वद विभूतियाँ रहीं, वहीं वर्तमान में भी कई गरिमामयी नारियाँ सामने आई हैं मगर, कुछ सांस्कृतिक विरासतों से दूर हटकर। वहीं दुसरा पक्ष भी स्याहपूर्ण सत्य समेटे हुए भविष्य की दिशासूचक सुई कुछ और भी बता रही है। जैसे- धनलोलुप सुविधापूर्ण तलाक, प्रतशोधात्मक बलात्कार जैसी घटानाओं को प्रमाण स्वरूप लिया जा सकता है। सच तो यह है अविकसित आदिवासियों में बलात्कार जैसी घटनाएँ विकसित समाज की अपेक्षा नगण्य होती हैं। कारण, कामातुर मन का विकसित होना या कामुकता का बुद्धि में प्रवेश पा जाना। और जिस विषय को मात्र बुद्धि से, विवेक से नहीं, निर्णीत मान लेना अविश्वासको ही जन्म देगा। जो वर्तमान भविष्य के कुत्सित समाज की और इशारा करता है।
जबकि हमारी भारतीयता इसे कतई इजाजत नहीं देता। भारतीय संस्कृति का तो स्पष्ट उद्घोष है- यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता:॥ कब और कैसे ? इसके लिए एक सूत्र- कार्येषु मंत्री, कर्णेषु दासी। भोजयेषु माता शयनेषु रम्भा। इन चार गुणों की बाहुल्यता जहाँ स्त्रियों में पाई जायेगी वहीं रमन्ते देवता का स्थान भी सुनिश्चित माना जाएगा।
कार्येषु मंत्री…….की व्याख्या।
अतः इन चार गुणों की बाहुल्यतावाली नारी ही कबीर, तुलसी जैसे विवेकानन्द उपहार स्वरूप देश समाज को दे पाएंगी। क्योंकि वे जहाँ जननी है वहीं ममता, वात्सल्य सा निर्मलता, सौहार्द्रता का जनक भी। क्योंकि कर्तव्य परायणता के स्वबोध के संस्कारों को कूटकूट कर भरनेवाली एक शिक्षिका भी। संस्कार तो संस्कृति प्रदत्त है। अतः हम सबको भारतीय संस्कृति के प्रति सचेत और सतर्क भी रहकर विश्वगुरु बनकर भारत का नाम दर्ज कराना होगा।
माना कि भारतीय संस्कृति पर कई अविकसित संस्कृतियों के हमले हुए। सबो ने अपनी-2 अविकसित संस्कृति भी थोपने की भरपूर कोशिश की। पर हमें गर्व है – भारतीय संस्कृति आज भी अक्षुण्ण है।
इस देश का दुर्भाग्य रहा कि लोग अधिकार की बात तो करते हैं मगर, कर्तव्य भूलकर छिद्रान्वेषण में रम जाते हैं। इतना ही नहीं
एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा के आग में जलाने को उतारु हो जाते हैं।
मेरी एक आँख फूटे तो पड़ोसी की दोनों।
वैसे तो हमारी नजर में मनुष्य चार श्रेणी में विभक्त – तेरा, तेरा मेरा, मेरा – मनुष्य, जो तेरा है वो मेरा है- दानव, जो मेरा है वो भी तेरा है-मानव और जो न तेरा है न मेरा है- महामानव। अब आप स्वयं निर्णय करें कि इन चारों में बाहुल्यता समाज में किसकी है ?
पहला अपने मन की और दूसरा।
मन चंचल है इसे शास्त्र ही नहीं कहता सभी महसूस भी करते हैं। इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि काई पर पाँव बड़ी तेजी से फिसलते हैं। कुरीतियों और लोभ के दलदल में हम इस कदर धँस चुके हैं कि निकलना चाहकर भी निकलना नहीं चाहते।
भोजन शरीर के लिए नहीं, स्वाद के लिए खाने लगे हैं लोग
देखो तो कितनी भीड़ डाक्टरों के दर पे लगाने लगे हैं लोग
नैतिकता गर हो परखनी, न्यायालयों झाँककर देखो यारा
कैसे – कैसे धर्म के छाँव में जन्नत तक दिखाने लगे हैं लोग।
जबकि सृष्टि का आधार शरीर ही है इसलिए भी शरीर को स्वस्थ रखना लाजमी और जरूरी भी है। शरीर स्वस्थ्य तो चिन्तन- मनन भी स्वस्थ्य। और वुवेक पूर्वज मन पर नियंत्रण भी सम्भव। जिसकी वर्तमान में निहायत आभाव है। इसलिए भोजन को आधार मानकर शेष दुनियावी व्यापार की परिकल्पना है।
हमारे भारतीय ऋषि मुनियों, चिंतकों ने भोजन को भी गुणों के आधार पर विभाजित कर समाज में समरसता, सौहार्द्र समझाने का प्रयास किया। मगर , विश्वगुरु रहा भारत का वर्तमान भी पुरखों के तथ्य को नकारने लगा जिसका प्रमाण वर्तमान परीक्षित है।
समाज में बढ़ता वैमनस्य, कटुता, आर्थिक शारीरिक बलात्कार की घटनाएं आम बात बनकर रह गयी।
लगभग यही हाल समाज के दो वर्गों स्त्री-पुरुष पर समान रुप से लागू होती है। कहीं पुरुष प्रताड़ित स्त्री है तो कहीं स्त्री प्रताड़ित पुरुष। यहाँ यह भी मानना पड़ेगा कि पुरुष की अपेक्षा नारियाँ अधिक शोषित रही है और हैं भी। क्योंकि सदा से भारतीय समाज पुरुष प्रधान रहा है और है भी।
वर्तमान में विश्व के जिन देशों द्वारा महिलाओं को बराबरी का समान अधिकार की बात करते हैं उन देशों के महिलाओं को 50 के दशक तक बैंकों में खाते तक खोलने का अधिकार प्राप्त नहीं था। जिनके यहाँ पिता की निश्चितता नहीं होने के कारण बच्चों को माता के नाम से जानने की प्रथा रही हो वहीं भारत में पिता के नाम से जानने की प्रथा से स्पष्ट घोषणा चारित्रिक प्रमाण को दर्शाता है जिसके फलस्वरुप तब का भारत कई तरह के यौन रोगों से भी मुक्त रहा। जब से स्वच्छंदता बढ़ी तब से रोगों का विस्तार भी बढ़ा।
स्वच्छंदता और रोगग्रस्त शरीर का सबसे बड़ा कारक भोजन में मिलावट के साथ यौनोत्तेजक रसायनों का भरपूर प्रयोग।
मेरी नजर में- रोगी शरीर के लिए उत्तरदायित्त्व माँ द्वारा स्तनपान से परहेज। जिसके फलस्वरुप शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता का आभाव ही नहीं वात्सल्यजनित ममता, करुणा, सात्विक स्नेह की कमी। जो नवजात शिशुओं में माँ से ही प्रदत्त है।
अगर, प्रत्येक माँ सुनिश्चित कर ले कि एक भी बच्चा आजीवन गम्भीर बिमारी की चपेट में न आये और कष्टपूर्ण प्रसवपीड़ा से भी निजात की व्यवस्था है। गेहूँ के दाने के बराबर चुना एक कप अनार के रस में मिलाकर प्रसवकाल तक नित्यक्रिया से निवृत्त होकर नियमित पी ले और स्तनपान से परहेज न करे तो निश्चित है आजीवन रोगरहित और अत्यधिक बुद्धिमान बालक देश समाज को समर्पित कर पाएंगी।
कुछ तो प्रभाव सामाजिक परिवेश यथा- टी वी, सिनेमा और प्रचार माध्यमों का पड़ता ही है मगर अन्यों की तुलना में अपेक्षाकृत कम प्रभाव भी इन बच्चों पर पड़ेगा।
साथ ही तामसी भोजन के दुष्प्रभाव से समाज एक नई और उन्नत दिशा की और अग्रसर होगा।
इसलिए भी नारियाँ उस विद्रूप समाज के निर्माण से स्वयं को अछूता नहीं समझ सकती। देश समाज की जितनी बड़ी जिम्मेदारी नारियों पर है, वे चाहें तो देश को फिर से विश्व गुरु बना दें याफिर बदहाल भारत का निर्माण कर स्वयं भी अभिशापित जीवन बिताने को तैयार रहें। इसके अलावे जीवन जीने के निमित्त और किसी भी क्षेत्र में आरक्षित अधिकार की बात करें उचित है।