कविता

मधुगीति – त्याग कर तृण वत स्वदेही !

त्याग कर तृण वत स्वदेही,
आत्म हो जाती विदेही;
यन्त्र वत उड़ कर सनेही,
दूर से तकती विमोही !
लौट कर फिर आ न पाती,
सूक्ष्म हो ना क्षुद्र चहती;
देख सब का भाव पाती,
आत्म- भव गोते लगाती !
हो असीमित सीम को तर,
त्याग भौतिक भित्ति स्तर;
भ्रान्तियों का विपुल कलरव,
लुभाता ना चित्त चितवन !
त्राण की तरजों में छलकी,
पलक मूँदे चली पुलकी;
स्मृति जग की विहाती,
सजन नव जगपति सुहाती !
सृष्टि तारक की तरंगें,
ले चलीं बन सखी संग में;
याद प्रिय ‘मधु’ नाद भव-नद,
बन बधु आत्मा सिधाती !
(बन वधू परमात्म धाती !)

गोपाल बघेल ‘मधु’, टोरोंटो, ओंटारियो, कनाडा