कविता

मधुगीति – प्राण परिहरि त्राण वर कर !

प्राण परिहरि त्राण वर कर,
आत्म हो स्वच्छन्द जाती;
लिप्ति की भित्ति विहा कर,
मुक्ति का आनन्द लेती !
तख़्त सब तज वक़्त से फुर,
बने नारद विचर पाती;
पँच तत्वों की परिधि तर,
पंक में पंकज उगाती !
प्रकारों औ विकारों को,
दिए वह आकार चलती;
यम नियम की कोपलों को,
लिये नव आयाम चलती !
लय रहे प्रति लौ फुरा कर,
ललाटों को ताल देती;
ललित नृत्यों की ललक पर,
ताण्डवी सृष्टि नचाती !
अण्ड हर को छन्द दे कर,
क्षुद्रता को सूक्ष्म करती;
‘मधु’ में माधुर्यता भर,
चेतना का ज्वार देती !
गोपाल बघेल ‘मधु’, टोरोंटो, ओंटारियो, कनाडा