ग़जल : पत्नी
बनी है जान की आफत,कहूँ पर प्राण की प्यारी ।
लगी थी वो बड़ी सुंदर, असल में यार बीमारी ।।
सवेरे ही सवेरे गूंजते है बोल कानो में,
खड़े होकर करो पति देव जी झाड़ू की’ तैयारी ।।
सुना है मालकिन होती हमारे अर्ध अंगों की ।
यहाँ उलटी बही गंगा,हुई पूरे पे वो भारी ।
कभी जो सोचता हूँ यार शादी ना करी होती,
करी जबसे हुआ तन्हा,बिगड़ गयी जिंदगी सारी ।।
सुमन सोचो बला क्या ये?दवा इसकी कहाँ होगी ।
हरी मिर्ची के जैसे है,नमक जैसी लगे खारी ।।
— नवीन श्रोत्रिय “उत्कर्ष”