मित्रता की एक और तस्वीर
हम अपने मित्र दम्पत्ति से मिलने लॉन्ग बीच कैलिफ़ोर्निया गए। उनका घर एक गोल परिधि में बनी कोठियों में एक था। करीब बीस एक जैसी इमारतें। बहुत सुन्दर आवासीय संरचना। बीच में गोल घास का घेरा। उसके चारों तरफ गोलाई में चौड़ी सी सड़क। सड़क से निकलते सभी घरों के पक्के रास्ते। एक तरफ़ा ट्रैफिक के सुदर्शन निशान। हर घर की अपनी दीवार और गेट। इन दीवारों के सामने एक एक व्यक्तिगत घास का टुकड़ा जिसके पक्के किनारे थे। इन पर बिजली के खम्भे थे। करीब करीब सबने इन्हें फूलों से सजा रखा था। अनेक सुन्दर सदाबहार झाड़ियां लगाईं थीं।
यहां न नौकर होते हैं न माली। सबको अपना शौक निभाना है तो खुद मेहनत करनी पड़ती है। हफ्ते भर हमें रहना था। सुबह उठकर बाहर के ताज़ा मौसम का आनंद उठाते हुए मैंने पूछा कि बाग़ बगीचे का शौक आपने कब से पाल लिया। दीनू भाई बोले कि अंदर की झाड़ियाँ आदि भानु बेन ने लगाई हैं। बाहर का टुकड़ा किसी ने गोद ले लिया है। हमें जिज्ञासा हुई तो उन्होंने बताया।
दस वर्ष पहले उनके मोहल्ले में एक शरणार्थी कम्बोडियन महिला उनके साथवाले घर में रहने आई थी। अकेली थी। एक पोस्ट ऑफिस में नौकरी करती थी छोटी मोटी। वह केवल किरायेदार थी। उसे भाषा नहीं आती थी। मकान मालिक से भी वह लिखकर जरूरी संवाद किसी तरह कर लेती थी। शकल सूरत से विदेशिन होने के कारण कोई उससे बात नहीं करता था।
लोगों ने उसका नाम लूसी डाल दिया। मगर कोई उसे बुलाता नहीं था। एक बार उसने शायद अपने मकान मालिक से पूछा की क्या वह बगीचा संवार दे तो उसने उसे अनजान समझकर साफ़ मना कर दिया।
लूसी खुरपा लेकर सरकारी घासवाले टुकड़े की जोताई में लग गयी। चुपचाप अपना काम करती रही। दो दिन बाद उसने करीने से कई पौधे उसमें लगा लिए। गरम मौसम में महीने भर में उसका नन्हा सा बगीचा रंगदार हो गया। सबने उसकी सराहना की। भानु बेन को बहुत कम बागबानी आती थी मगर उसकी देखादेखी वह भी रूचि लेने लगीं। दोनों में मूक वार्ता चलने लगी। लूसी बीज और कलम लगाने का गुर जानती थी। उसकी बगीची की शोभा सबको भा गयी। अतः सभी ने अपने घर के सामने फूल आदि लगाने शुरू कर दिए।
कालान्तर में लूसी के मित्रों की संख्या इतनी बढ़ी कि स्थानीय अखबारों में उसका नाम और फोटो छपा। एक पत्रकार उसका साक्षात्कार करने आया। अपने संग वह एक अनुवादक को भी लाया जिससे वार्तालाप में कोई दिक्कत न हो। लूसी ने बहुत झिझकते हुए अपनी कहानी सुनाई। कम्बोडिया में जब विपदा आई तब वह अनेक आपद्ग्रस्त लोगों के संग वहां से भाग निकली। उसके साथ उसका पति और बच्चे भी थे। मगर नाव यूरोप पहुँचने से कुछ पहले गच्चा खा गयी। इटली से सहायक जहाज़ों ने आकर उनको बचाया। फिर भी उसके दोनों बच्चे पानी में गिर गए। एक आठ वर्ष का और एक चार वर्ष का था। वह बेहाल चीखती रह गयी उसका पति बच्चों को बचाने के लिए खुद भी कूद गया। बच्चे तो नहीं मिले। बाद में कैंप में वह न्यूमोनिया से मर गया। लूसी अपना दिमाग खो बैठी। अनेक देशों की राजनैतिक बहसों में उलझती, लटकती वह किसी तरह अमेरिका आ पहुंची। यहां वह सफाई आदि का काम कर देती थी। कुछ वर्षों में उसे अंग्रेजी भाषा लिखनी पढ़नी आ गयी मगर वह किसी से भी बोलने में डरती थी अतः अंग्रेजी भाषा में संवाद बहुत कम कर पाती थी।
भानु बेन से दोस्ती हो गयी तो उसने प्रस्ताव रखा कि वह उनके घर के बाहर वाला घास का टुकड़ा भी सजाना चाहती है। भानु ने पूछा उसे क्यों इतना कठिन काम अच्छा लगता है। वह बोली कि उसका सब कुछ भगवान् ने वापिस ले लिया मगर बदले में उसे एक नया देश और भले लोग दे दिए। अब जो मिटटी उसका पोषण कर रही है उसका उधार भी तो उसे चुकाना चाहिए। यह शौक या स्वार्थ नहीं है यह प्रत्युपकार है। अतः उसका कर्तव्य है कि वह भी उस देश की मिटटी को कुछ दे।
यह वर्षों पूर्व की बात है। आज की तारीख में लूसी से एक अध्यापक ने विवाह कर लिया जो अमेरिकन है। उनके दो बेटे हैं। अध्यापक ने उन दोनों बच्चों के नाम लूसी के पहलेवाले बेटों के नाम पर रखे है। और वह स्वयं भी बौद्ध धर्म का अनुयायी बन गया है।
— कादम्बरी मेहरा, लंदन