परंपराओं के पालक हम, धर्म गये क्यूँ भूल
परंपराओं के पालक हम, धर्म गये क्यूँ भूल
भारती पूछ रही
छोड देश हित हुए सभी क्यूँ, निज हित में मशगूल
भारती पूछ रही…
होठों पर मुस्कान सजी है, पर बाँहों में खंजर है
सदभावों की धरा हो रही, जाने क्यूँ नित बंजर है
सदभावों के फूल बन गये, क्यूँ नफ़रत के शूल
भारती पूछ रही…
गंगा की पावन धारा में, घोल रहे क्यूँ विष बोलो
धर्म नाम पर फैल रही है, कैसी ये साजिश बोलो
मानवता से कुर्सी का क्यूँ, लगा रहे हो मोल
भारती पूछ रही…
मंदिर मस्जिद के बँटवारों, से बोलो तो क्या होगा
नित लगते जेहादी नारों, से बोलो तो क्या होगा
संस्कारों के गुलदानों में, सजा रहे क्यूँ शूल
भारती पूछ रही…
अंतिम बूँद लहू की देकर, दम सीमा पर तोड गये
देश प्रेम के जज़्बे की जो, अमर कहानी छोड गये
उनके बलिदानों को हम क्यूँ, रहे दिनो दिन भूल
भारती पूछ रही…
सतीश बंसल
२३.०३.२०१७