लघुकथा : ममता की माँ, रिश्ते की बुआ
अभी अभी सुना कि एक और हृदयविशालिता की देवी बिछलाकर अपने ही आँगन में गिर गई। टूट गई उसकी वो पुरानी और मजबूत पसलियां जो पुरे जीवन दौड़ दौड़ कर घर से लेकर रिश्ते- नातों तक के हर हाथों को मजबूत करती रही है। आज तक वो जिन हाथों को चूमती रही, दुलारती रही, सहलाती रही है वही हाथ अब उसको उठाने बिठाने और नहलाने में लगे हुए है। जिसे दायित्व समझकर, निभने- निभाने की पीड़ा लिए हुए, असीम वेदना के साथ हर चेहरे एक दूसरे को तक रहे हैं। मानों, सबके सब एक दूसरे से पूछ रहे हैं अब क्या होगा? इस उमर में इतना वजनी शरीर,…..! निरुत्तर जबाब, चुप्पी, मौन और अकुलाहट…… लटके हुए चेहरों में वह भी एक चेहरा बनी है जो कभी दायित्व के लिए नहीं, अपनों के लिए दर्द पीकर हँसती रही है ताकि किसी का स्वाद न बिगड़ जाय। काश वही हंसी दुबारा आ पाती उसके होठों पर जिसने अपनी नज़रों के सामने किसी को कभी गिरने नहीं दिया, कभी कोई गिर भी गया तो उसने सहलाकर दर्द नहीं होने दिया। आज खुद ही गिर गई है, अपनी शरीर को सम्हाल न पाई, सबको उदास कर रही है और अपने ही नज़रों से नज़रें चुरा रही है, उसकी हिम्मत जबाब दे रही है, शायद पूछना चाहती है कोई सहला क्यों नहीं रहा है मेरे दर्द को, खुद दर्द में क्यों लटके हो, हड्डी मेरी टूटी है तुम्हारी नहीं?……हड्डियों में दर्द नहीं होता और दिल में हड्डी नहीं होती……दिल दुःख रहा है, मत लटकाओ अपना चेहरा, लाचार मैं हूँ अपने बिस्तर पर, तुम नहीं…..जाओ, अपने अपने बिस्तर पर आराम कर लो, मेरे हाथ अब सहलाने के लिए सक्षम नहीं हैं। करवट कैसे बदलती, आँख बंद कर ली, आँसू किनारे से ताक रहें हैं उन्हें कैसे रोक पाती…….
एक एक करके सब खिसियाते हुए सरकने लगते हैं, अचानक आई हुई इस अतिरिक्त जबाबदारी का भार लिए हुए। किसी की छुट्टी नामंजूर हो गई तो कोई टिकट में उलझा है और कोई नजदीक व पास होने के कारण अपने आप को कोस रहा है, उसकी बात भी सही है, मरीज की सेवा कोई दूर वाला क्या करेगा, कुछ पैसे देकर कुछ दिन साथ रहकर, अपने आप को समझाया जा सकता है, माँ, मर्ज और मतलब खुद ही समझदार हैं, इन्हें कौन समझाए।
झिनकू भैया की माँ भी इसी तरह अपने आँगन में गिर गई थी और चौदह वर्षों तक बिस्तर पर पड़ी रहीं, खूब सेवा किया परिवार वालों ने, धन्य है उस माँ के सबसे छोटे पुत्र व बहु, जिन्होंने एक पल भी ओझल न होने दिया अपनी माँ व सासू को अपनी नज़रों से। सेवा का फल भी मिल रहा है, परिवार के सभी लोग खूब बढ़ रहें है। उसी परिवार की हैं ये, झिनकू भैया की बुआ हैं जिनका खुद का परिवार भी खूब सक्षम है भाव, भावना और सेवा का हिमायती। परिवार अच्छा हो लोग अच्छे हों तो बुढ़ापे का दर्द सिमट जाता है। हड्डियां किसी की भी टूट सकती है, घटनाएँ कहीं भी घट सकती है, पर नच्छत्तर भाई के माँ की दशा देखकर रूह काँप जाती है उनके जैसा हाल किसी का ना हो, दवा- दारु की कौन कहे, खाना- पानी भी उन्हें अपनों से न मिला। चली गईं अपना दर्द लिए, अपनों को छोड़कर……जाना तो सबको है कोई दर्द देकर-लेकर जाता है तो कोई दर्द को सहकर या उसे हर कर जाता है। अब इसे सतकथा कहें, लघुकथा कहें या जो भी नाम दें, अपनी मर्जी है पर हकीकत यह है कि बुढ़ापे का रोग हर घर की व्यथा है, जिससे मुंह मोड़ लेना ममता का अपमान है, जरुरत है व्यथित अंतरमन को सहलाने की……
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी