// स्वधर्मे निधनं श्रेय पर धर्मो भयावहः //
शब्दकोश के अनुसार धर्म का अर्थ है – 1. “किसी व्यक्ति केलिए निश्चित किया गया कार्य व्यापार;कर्तव्य” । 2. “किसी वस्तु या व्यक्ति में रहनेवाली मूलवृत्ति;प्रकृति ; स्वभाव ।” यहाँ विचार करने की बात यह है कि किसी व्यक्ति केलिए कार्य व्यापार कौन निश्चित करते हैं ? इसका झट से समाधान देते हैं कि भगवान व ईश्वर। भगवान ये सभी करता आ रहा है। यह भी लोग मानते हैं कि भगवान सर्वांतर्यामी है। सकल चराचर में वह रहता है। इसलिए महान चिंतकों, विचारकों एवं बुद्धिमानों के अनुसार बनाये गये कार्य व्यापारों पर चलते हैं। उनको हम भगवान का नाम भी देते हैं। इनको धर्म के नाम से माना जाता है। जब यह रूढ़िगत बना हुआ तो वह पर धर्म है। क्योंकि यह दूसरों का है। बहुत काल से चला आ रहा है। इसमें हमारा कुछ भी नहीं है। माने यह स्वधर्म का नहीं है।
संसार में धर्म कई रूपों में दिखाई देता है। हिंदू,मुस्लिम, सिख, ईसाई, फारसी , जैन, बौद्ध, ज्यू, शिंटो, जोराष्ट्रियन आदि। इनमें उच्च व नीच व श्रेणी का विभाजन नहीं करते इसलिए कि ये धर्म व मत उस समय के काल परिस्थितियों के अनुरूप बना है। सबका चिंतन समाजिक हितार्थ है। इनमें कोई स्थिर व शाश्वत नहीं है। संसार में कई धर्म लुप्त हुए हैं और नये धर्मों का जन्म हुआ है। आगामी भविष्य में भी अनेक धर्मों का जन्म होगा। नये धर्म का जन्म होना सामाजिक विकास का धर्म है। काल परिस्थितियों के अनुरूप धार्मिक परिवर्तन होना स्वाभाविक लक्षण है। अगर ऐसा न हो वह धर्म रूढ़ि धर्म बनेगा। हिंदू, मुस्लिम, ईसाई जो भी धर्म हो उनमें काल, परिस्थितिगत परिवर्तन देखा जाता है। श्रेष्ठ धर्म के बारे में महाभारत में विदुर नामक ज्ञानी के माध्यम से जाना जाता है कि “दूसरों के किस काम से हम दुःखित व पीड़ित होते हैं वही काम हम दूसरों के साथ नहीं करना श्रेष्ठ धर्म है।” भगवद्गीता का यह श्लोक देखें -“स्वधर्मे निधनं श्रेय परधर्मो भयावहः” अर्थात् स्वधर्म श्रेष्ठ एवं परधर्म भयकारी है। उक्त इन विचारों व मतों के विश्लेषण से हमें धर्म का यह वास्तविक अर्थ द्रष्टव्य होता है कि धर्म का अर्थ गहन चिंतन में उत्पन्न विचार,मत व अभिप्राय है। धार्मिक रूप बनने वाले ये मत उन गहन विचारकों का है। हमारा इसमें कुछ भी नहीं है। देश,काल, परिस्थितियों के अनुरूप जीवन में कई आचार, संप्रदाय एवं नियमों का रूप धारण करने वाले ये विचार एकदम सही मानना उचित नहीं होता है। ये बड़े बुद्धिमानों, चिंतकों, एवं महान शक्तिमानों के निर्धारित होने पर भी कालगति में यथातथ स्वीकार योग्य भी नहीं है। इनमें अपने-अपने हित में रचाया गया तंत्र भी है। इसलिए कालक्रमानुसार इनमें परिवर्तन होना आवश्यक है क्योंकि यह परधर्म है। परिवर्तन स्वधर्म का रूप है। जो बातें आचारगत, धार्मिक , रूप से अब तक चली आ रही है उनमें अगर परिवर्तन न हो वे बातें रूढ़िगत एवं मूढ़मय होकर सामाजिक एकता के सुख जीवन में बाधा आ जाती है। इसलिए परिवर्तन की दिशा में धर्म होना आवश्यक है। हरेक को स्वधर्मी बनना भी है। स्वधर्मी बनने का मतलब अपनी ओर से कुछ नियम होनी है। इससे विकासशील समाज का रूप बनता है। हरेक को अपनी साधना में निरंतर चिंतन मंथन से समाजोपयोगी एवं कल्याणकारी दिशा में आगे बढ़ना अपना कर्तव्य है। दूसरों के विचारों, मतों पर ही चलना परधर्म है यह भयानक स्थिति को पैदा करनेवाली है। जो व्यक्ति स्वधर्मी बनता है वह वास्तविकता की ओर चलता है। सत्य के साथ जुड़ता है। उसमें आध्यात्मिक उन्नति होती है। यह न केवल व्यक्ति को सुख देता है बल्कि समाज को भी चेतनता प्रदान करनेवाली है। इस समाज में कोई बड़ा, छोटा नहीं है। भगवान बुद्ध कहते हैं कि “मैं किसी से बड़ा नहीं हूँ, मैं किसी से छोटा नहीं हूँ और किसी से समान भी नहीं हूँ।” इस सृष्टि में हरेक का अपना अलग महत्व है। स्वधर्मी बनने का अधिकारी सभी जन हैं।