ग़ज़ल
कभी मैंने जो उनकी याद में दीपक जलाये हैं
सुनहरी सांझ में पंछी यूं घर को लौट आये हैं
नहीं ये ओस की बूँदें हैं आंसू गुल के गालों पे
किसी ने खत मेरे शायद उन्हें पढ़कर सुनाये हैं
दुआ में झोलियाँ भर भर जो औरों के लिए मांगे
ख़ुशी ने उसके आंगन में आकर गीत गाये हैं
बदले हैं बहारों के हसीं मौसम खिजाओं में
किसी के खाब पलकों ने मेरी जब जब सजाये हैं
कभी करते नहीं परवाह बशर जो रिसते छालों की
वही अम्बर के तारों को जमीं पे तोड़ लाये हैं
पुराने दोस्त देखे हैं खड़े दुश्मन के पाले में
शोहरत की बुलंदी के करिश्मे आजमाए हैं
— अशोक दर्द