“सँवरना न परिन्दों”
अनज़ान रास्तों पे निकलना न परिन्दों
मंजिल को हँसी-खेल समझना न परिन्दों
आगे कदम बढ़ाना ज़रा देख-भाल कर
काँटों से तुम कभी भी उलझना न परिन्दों
भोले कबूतरों के लिए ज़ाल हैं बिछे
लालच की उस जमीं पे उतरना न परिन्दों
आजकल के आदमी, शैतान हो गये
भरकर चटक-लिबास, सँवरना न परिन्दों
अब मीत-मीत का ही गला काट रहे हैं
यूँ ही सभी के साथ, विचरना न परिन्दों
भेड़ों के “रूप” में छिपे हैं भेड़िये यहाँ
फूलों को देख करके मचलना न परिन्दों
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(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)