तेरे सितम ,मेरी शराफत
दिल तो मज़बूर करता है ,पर मेरी जुबान नहीं खुलती
तेरे सितम के आगे कभी , मेरी शराफत नहीं झुकती,
तू लाख करले जुल्मो सितम, कुछ हासिल न कर पायेगा,
मुझे जो भी दिया है उसने दिया है, तू कुछ न छीन पायेगा
कई आये सिकंदर, कई आये धुरंधर , क्या ले गए वो साथ,
उनकी ही तरह सब यहीं छोड़, तू भी खाली हाथ ही जायेगा,
लगता है पर निकल आएं हैं तेरे, क्यों हवा में उड़ रहा है,
पर संभलेगा तभी, जब अपने पांव ज़मीन पर रख पायेगा,
अपनी ‘खुदी’ को छोड़ कर उस अपने खुदा को याद कर,
वर्ना उसकी बिन आवाज़ लाठी से तू खाक में मिल जायेगा
— जय प्रकाश भाटिया