“घुटता गला सुवास का”
आम नहीं अब रहा आम, वो तो है केवल खास का।
नजर नहीं आता बैंगन भी, यहाँ कोई विश्वास का।।
अब तो भिण्डी, लौकी-तोरी संकर नस्लों वाली हैं,
कद्दू के पिछलग्गू भी अब खाने लगे दलाली हैं,
टिण्डा और करेला भी तो, पात्र बना परिहास का।
नजर नहीं आता बैंगन भी, यहाँ कोई विश्वास का।।
केला-सेब-पपीता भी तो, खाने लगे दवाई को,
बच्चे तरस रहें हैं कब से, खोया और मलाई को,
जूस मिलावट वाला पाकर, घुटता गला सुवास का।
नजर नहीं आता बैंगन भी यहाँ कोई विश्वास का।।
खरबूजा-तरबूज सभी के, भाव चढ़े बाजारों में,
धनवानों ने कैद करी हैं, लीची कारागारों में,
नहीं मिठाई में आता, नैसर्गिक स्वाद मिठास का।
नजर नहीं आता बैंगन भी, यहाँ कोई विश्वास का।।
— डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’