कर्म – फल
“डैडी अब मै कालेज नहीं जाउगी, पूरा शहर आवारा हो चुका है जैसे लगता है किसी के पास बहन बेटी है ही नहीं. रोज रोज के फब्ती और लड़कों की अश्लील हरकत से मै आजिज आ चुकी हु.”
“मुझे मालूम है वेटा लेकिन क्या करू तुम्हारे भविष्य का सवाल है और तुम अकेली भी नहीं हो, सबके साथ यही हो रहा है, समाज बहुत पतित हो चूका है, संघर्ष तो करना ही पड़ेगा”, पिता बोला !
लड़की के पास कोई चारा भी नहीं था. लेकिन यह क्रम दुसरे तीसरे दिन चलता रहता था. लड़की हमेशा शिकायत करती रहती थी, बाप हमेशा ढाढस बंधाया करता था. एक दिन लड़की पूरी तरह से भीगी हुई आई और सायकिल बरामदे में रखकर बाप से लिपट कर रोने लगी और बोली की “पिता जी मै तयं कर चुकी हु की अब मै पढने नहीं जांउगी, आखिर आप मुझे क्या बनाना चाहते है ! इंजिनियर डाक्टर प्रोफ़ेसर या कुछ और, कंही आपका सपना चूर चूर न हो जाए ! अज तो हद हो गई. कालेज से छुटी तो बरसात होने लगी, एक प्लास्टिक के छप्पर के निचे कड़ी हो गई. वहा दो चार शोहदे आकर खड़े हो गए और बदतमीजी करने लगे. यद्यपि भीड़ सामान्य थी लोग आ जा रहे थे लेकिन कोई शोहदों का बिरोध नहीं कर रहा था उलटे सब मुस्करा कर आगे बढ़ते जाते थे, घृणा हो रहा था की आखिर निर्भया कांड पर कैंडिल जलाने वाले कौन थे? पिता जी आज हद हो गया, एक मनचला मेरा पल्लू खीच लिया, मै गिरते गिरते बची.”
“अब कुछ नहीं होगा बेटी जो होना था हो गया. यह सब मेरे कर्मो का फल है. मुझे २५ साल पहले घटी घटना याद आ रही है, मैंने भी एक लड़की के साथ ऐसा किया था, वह आँखों में अंशु भरकर बोली थी की यही सब एक दिन तुम्हारे लड़की के साथ होगा.”