दोहे
पर्वत सागर झील वन, सागर नदी पठार।
लुटा रही हर रूप में, कुदरत अपना प्यार।।
जीवन का अाधार है, जल की बहती धार।
जल बिन जीवन कल्पना, मानव सोच विचार।।
रोक नदी की धार को, मत जन जीवन छीन।
नदियाँ रूधिर वाहिनी, तन है अगर ज़मीन।।
पेडों को काटो नही, करती धरा पुकार।
ये जंगल वन बाग हैं , धरती का श्रंगार।।
काट वृक्ष मत रोकिये, इस जीवन की राह।
वृक्षो बिन संभव नही, तन में प्राण प्रवाह।।
जीव जंतु सबके लिये, है कुदरत का प्यार।
मानव क्यूँ करने लगा, फिर सब पर अधिकार।।
पेडो के उपकार पर, मानव का कल आज।
भोजन दारू या दवा, सब देते वनराज।।
लालच में जो बंद हैं, मन की आँखे खोल।
बिन पेडो अपना यहाँ, तू अस्तित्व टटोल।।
बंसल करता है यही, विनती बारंबार।
पेडों को मत काटिये, ये जीवन का सार।।
सरीश बंसल
०२.०६.२०१७