गीत: लिखते लिखते हार गया
दो गीत लिखे थे यौवन में
एक मिलन कथा एक विरह व्यथा
एक गीत अधूरा छूट गया
एक लिखते-लिखते हार गया
वो नीम ठाँव की दोपहरी
वो धूप-छाँव की दोपहरी
जो तपिश विरह की दहकाती
वो प्रेम-गाँव की दोपहरी
तुम प्रिये न फिर मिलने आयी
मैं तकते-तकते हार गया
मैंने इक कोरे पन्ने पर
चेहरे का चित्र उकेरा था
कोरा पन्ना था हृदय मेरा
पन्ने पर चेहरा तेरा था
मैं चला रंग भरने उसमें
पर भरते-भरते हार गया
आसान नहीं था चल पाना
इस जीवनराह तुम्हारे बिन
प्रिय बिना इज़ाज़त यादों को
अपने संग रखता रातोदिन
निर्णय था तुम बिन चलने का
पर चलते-चलते हार गया
हो सकी न पूरी अभिलाषा
अब तक, अब पूरी क्या होगी
मुझसे बढ़कर इस दुनिया में
कोई मज़बूरी क्या होगी
दुनिया के शब्दों के शायक
मैं सहते-सहते हार गया
मैं पंछी मस्त गगन का हूँ
क्या करूँ कटी इन पाँखों का
मैं दिल से सीधे निकला हूँ
दिखता हूँ आँसू आँखों का
कब ?कौन? समय से जीता है
मैं बहते-बहते हार गया
— प्रवीण श्रीवास्तव ‘प्रसून’