गज़ल
गिरगिट जैसे नेताओं का रंग बदलना जारी है,
भोले-भाले लोगों को मिलजुलकर ठगना जारी है
सपने रोज़ दिखाते हैं वो हमें पेट भर खाने के,
रोज़ मगर बाज़ारों में मँहगाई का बढ़ना जारी है
कितने ही कानून बने हैं औरत के हक में लेकिन,
दहेज की खातिर बेचारी बहुओं का जलना जारी है
धूप झोंपड़ी के हिस्से की खा गए महलों वाले सब,
वैसे तो हर सुबह यहां सूरज का उगना जारी है
इससे ज्यादा बुरा वक्त अब और भला क्या आएगा
अनाज उगाने वालों का ही भूख से मरना जारी है
ना जाने हम इंसानों के आँसू कैसे सूख गए,
पत्थर के सीने से जब झरने का निकलना जारी है
— भरत मल्होत्रा