हास्य व्यंग्य : मैं विदेशी नहीं
एक शिक्षक होने के नाते कहता हूँ कि मुझे अपने प्रजातांत्रिक देश की शिक्षाप्रणाली का वह अंग सबसे अधिक पसंद आता है जब विद्यार्थियों को हाईस्कूल की परीक्षा में निबंध लिखने दिया जाता था-‘यदि मैं प्रधानमंत्री होता’। अपने सुखद सपनों को सफेद कागज पर काली स्याही से चित्रित करनेवाला वह विद्यार्थी, थोड़ी देर के लिए ही सही पर अपने आप को इस देश का भाग्य-विधाता समझने लगता है। जबकि उसे इस वास्तविकता का बिल्कुल आभास नहीं होता कि उसका लिखा उसे सिर्फ परीक्षा में उत्तीर्ण करवा सकता है, प्रधानमंत्री नहीं बना सकता। उस भोले-भाले देश के भविष्य को यह पता नहीं होता कि प्रधानमंत्री पद की कुर्सी आदर्श, शिक्षा और नैतिकता से भरी उज्जवल वाक्य रचना से नहीं अपितु भ्रष्टाचार, राजनीति और कूटनीति के दलदल से गुजरकर मिलती है।
मुझे आज भी वह दिन याद है, जब मैंने हाईस्कूल की परीक्षा में ‘यदि मैं प्रधानमंत्री होता’ निबंध लिखा था, और मास्साब ने सर्वाधिक अंकों का बहुमत प्रदान कर, मेरी सरकार की स्थापना उस कक्षा में कर दी थी। मुझे याद है मैंने उसमें देश की शिक्षा प्रणाली सुधारने के लिए द्रोणाचार्य और चाणक्य टेªनिंग सेंटर खोलने की सलाह दी थी। देश को खेलकूद की दिशा में बेहतर बनाने के लिए, कम बच्चे पैदा कर अच्छा प्रशिक्षण देने की बात कही थी। भ्रष्टाचार को शिक्षा का आवश्यक विषय बनाने के अनेक सुंदर विचार बतलाए थे। मैंने उसमे यह भी बताया था कि देश से जातिवाद और सांप्रदायिकता हटाना, हमारी सांस्कृतिक विरासत के साथ छेड़छाड़ करना और अपमान के समान है। यदि हम इसे ध्वस्त कर देंगें तो हमारे उन महापुरूषों का क्या होगा जो किसी दलित या तथाकथित अछूत को गले लगाने से महापुरूष बने। जाति व्यवस्था इस देश के लिए बहुत आवश्यक है। वरना चुनाव कैसे होंगे? अगर जाति व्यवस्था बंद हो गयी तो महापुरूषों और महामानवों का उत्पादन हमारे देश में बंद हो जाएगा! भारत की अर्थ-व्यवस्था को सुधारने के लिए मैंने महर्षि चार्वाक के घी पीने के सिद्धांत को अपनाने पर बल दिया था। मुझे खुषी है कि आज मेरी उस सलाह को गति मिली है। कहने का मतलब ये कि मेरे उस राष्ट्रीय अजेण्डे में वे सारी बातें थीं, जिन्हें क्रियान्वित करना संभव न था। इसे ही राष्ट्रीय अजेण्डा कहते हैं। मुझे खुशी थी कि मास्साब उस निबंध से खुश थे। पर यह निबंध जब मेरे स्वाधीनता संग्राम सेनानी कांग्रेसी पिता ने पढ़ा तो, उनकी आँखों की चमक दोगुनी हो गयी। वे मुझे कभी नेहरू जी की फोटो के साथ खड़ा करते तो, कभी शास्त्री जी की तस्वीर के करीब ले जाकर उनसे मेरी सूरत का मेल करते। इंदिरा जी की फोटो के सामने खड़ा कर नहीं सकते थे क्योंकि……। कारण आप समझ सकते हैं। उनमें से किसी की भी सूरत से मेल खाता न देख उन्हें दुख होता। न जाने क्यों वे, वह निबंध पढ़कर मुझमें देश के भावी प्रधानमंत्री की छबि देखने लगे थे। उन्हें विश्वास-सा हो गया था कि उनका लल्ला एक दिन प्रधानमंत्री ज़रूर बनेगा। वे मास्साब से मिले। मास्साब ने उन्हें समझाया कि मुझे अच्छे अंक मेरे राष्ट्रीय अजेण्डे के लिए नहीं, अपितु मेरी अच्छी भाषाशैली और रचनाधर्मिता के लिए दिए गये हैं। ‘आपका पुत्र साहित्यकार बन सकता है, प्रधानमंत्री नहीं- यह सुनकर पिताजी निराश हो गये। भला मास्टर की औलाद प्रधानमंत्री बन भी कहाँ सकती है? ये सोचकर उनकी आँखों का सपना चकनाचूर हो गया। पर सच कहता हूँ आज होते तो मेरी जगह किसी और को देखकर खुश होते।
जैसा कि मैंने कहा, मेरा निबंध मास्साब के दिल-दिमाग पर छा गया था। पिताजी ने अपनी आकांक्षा की अमरबेल को मेरी महत्वाकांक्षा के वट-वृक्ष पर फैला दिया था, आज वह अमरबेल फिर हरी हो गयी है। पिताजी का वह सपना मेरी आँखों के 70एम.एम. परदे पर चमक रहा है। और वह भी ऐसे समय, जब देश को एक प्रधानमंत्री की आवश्यकता है। इस समय नेताओं की जमात में प्रधानमंत्री पद के योग्य कोई नहीं है। क्योंकि जो कार्यवाहक प्रधानमंत्री है, वह नेताओं को पसंद नहीं। और जितने नेता हैं उनमें योग्यता नहीं। तो फिर बचा कौन-नागरिक। देश को प्रधानमंत्री चाहिए, क्योंकि प्रधानमंत्री के बिना देश चल नहीं सकता। जिस तरह बिना माँ बने लड़की की सुन्दरता में निखार नहीं आता, उसी तरह बिना प्रधानमंत्री के नेताओं की सुंदरता अधूरी रहती है। यदि यह संुदरता कोई सुंदरी बढ़ाए तो और चार चाँद लग जाते हैं।
न मैं संुदर हूँ, न सुंदरी। पर देश की आवश्कता पूरी करने प्रधानमंत्री बनने को तैयार हूँ। मैं शिक्षक का बेटा ही नहीं, स्वयं शिक्षक भी हूँ। भ्रष्टाचार से बचता हूँ, या कहे तो अतिशयोक्ति न होगी कि, भ्रष्टाचार मुझसे बचा हुआ है। कविता वगैहर भी कर लेता हूँ। अवसर पड़ने पर भाषण भी दे सकता हूँ। एकाद दो बार झंडा भी फहरा चुका हूँ। विदेशी नेताओं और प्रतिनिधि मंडलों से मिलने में मुझे कोई परहेेज नहीं। आप मेरी सरकार को जब गिराना चाहें, उससे जब समर्थन खींचना चाहें, खींच सकते हैं। पर अभी मुझे प्रधानमंत्री बना दीजिए। मैं सब संभाल लूंगा।
पर जानता हूँ। आप मुझे प्रधानमंत्री नहीं बनाएंगें। इस देश का वातावरण बदल गया है। आप सब उपभोक्तावादी संस्कृति के पूर्जे हैं। मैं ठहरा एक देहात में पैदा हुआ-भारतीय। आपको विदेशी माल का चस्का है और मैं विदेशी नहीं हूँ। मैं विदेशी नहीं हूँ।
— शरद सुनेरी